________________
कहा है । परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें तो यह धर्मं की व्याख्या से बहुत दूर है । यह व्यवहारिक रुप हैं । धर्मं तो इस मान्यता से अत्यन्त उच्च और वैज्ञानिक वस्तु है । आचार्यों ने कहा है - " प्राणियों को संसार के दुख से बाहर निकालकर जो उत्तमसुख ( वीतरागावस्था) में प्रस्थापित करे वही धर्म है। ऐसा धर्म समस्त कर्मों का विनाशक होता है। धर्म चतुर्गति के जन्म-मरण से मुक्ति प्रदानकर दुःखों से मुक्त करता है और शुद्धात्म भाव में लीन बनाता है । शुद्धचैतन्य स्वरूप में स्थापित करके उद्धारक बनता हैमोक्ष तक पहुँचाने में सहायक बनता है । सर्वार्थसिद्ध में धर्म का लक्षण बतलाते हुऐ आचार्य कहते हैं- जिनेन्द्रदेव ने अहिंसा युक्त लक्षण को धमं कहा है । सत्य जिसका आधार है । विनय जिसकी जड़ है, क्षमा जिसका बल है । जो ब्रह्मचर्य से रक्षित है, उपसम जिसकी प्रधानता है और नियति जिसका लक्षण है । निष्परिग्रहता जिसका अवलम्ब है ।
आचार्यों ने स्व- आत्माकी परख को ही धर्म कहा है । इस कथन का अभिप्रेत है कि आत्मा को मूलतः निराकार, स्वतन्त्र, निष्काम सच्चिदानंद स्वरूप अजर अमर स्वरुप में ही स्वयं का कर्ता भोक्ता माना जाये । संसार की विषम विषय वासनाओं में आवृत यह जीव मोहवश सत्य को भूल जाता है और बाह्यस्थूल शरीर के ध्यान मे ही खोया रहता है । संसार के भौतिक सुखों को ही सुख मानकर अनंत काल तक जन्म-मरण के दुखों को भोगता रहता है । ऐसा जीव सत्य स्वरुप आत्मा को पहचाने यही धर्म है ।
इस सामान्य व्याख्या से इतना तो स्पष्ट हुआ कि संसार सुख प्रदाता तत्व धर्म नहीं है । जो उत्तम जीव (मोअ) में प्रस्था
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org