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जैनधर्म : सामान्य परिचय
शाब्दिक एवं विशेष अर्थ -
जैनधर्म को साधारणतया इस देश का विशाल जन समुदाय मात्र महावीर के आदर्शो या सिद्धांतो को मानने वाले थोडे से लोगों का धर्म मानते हैं । हिन्दू धर्मावलंबियों ने इसे नास्तिक या वेदविरोधी धर्म मानकर उसके प्रति तिरस्कार का भाव भी व्यक्त किया, परिणाम स्वरुप इस धर्म का प्रसार-प्रचार जितना होना चाहिये उतना नहीं हो सका । इतना ही नहीं एक विशाल जनसमुदाय सत्य और वास्तविकता से अनभिज्ञ रह गया । इस पूरे तथ्य की तबद्ध चर्चा जैनधर्म की विशिष्टता एवं प्राचीनता के संदर्भ में करेंगे ।
जैनधर्म के सिद्धांत और आराधना पक्षको समझने से पूर्व हम संक्षिप्त में 'जैन' और धर्म शब्दों पर विचार करेंगे । 'जैन शब्द स्वयं में एक विशेषण भी है और क्रियाका द्योतक भी है । जिन अर्थात जिन्होंने जीता है। प्रश्न है क्या जीता ? उत्तर मिलता है. कि जिन महापुरुषोंने अपनी इन्द्रियों को जीता है , मनको जीता है-कषायों को जीतकर जो जितेन्द्रिय बने हैं वे ही जिन हैं। जो व्यक्ति ऐसे जितेन्द्रिय 'जिन' के आदर्शों मूल्यों का अनुगामी है-वही जैन है। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसे महापुरुषों द्वारा स्थापित मूल्यों को अपने जीवन में उतार कर जिनत्व की ओर प्रयाण कर रहा है वहीं जौन है । इस प्रकार गुणों को स्पष्ट करने के
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