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प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तुकी खोज धारणा बन गयी थी कि जिस ग्रन्थ में प्रश्नों के समाधान किये गये हों, वह प्रश्नव्याकरण है । मेरी दृष्टि में प्रश्नव्याकरण के प्राचीन संस्करण की विषयवस्तु प्रश्नोत्तरशैली में नहीं थी और न वह प्रश्न-विद्या अर्थात् निमित्तशास्त्र से ही सम्बन्धित थी। गुरु-शिष्य सम्वाद की प्रश्नोत्तर शैलीमें आगम-ग्रन्थ की रचना एक परवर्ती घटना है-भगवती या व्याख्या-प्रज्ञप्ति इसका प्रथम उदाहरण है । यद्यपि समवायांग एवं नन्दीसूत्र में यह माना गया है कि प्रश्नव्याकरण में १०८ पूछे गये, १०८ नहीं पूछे गये और १०८ अंशतः पूछे गये और अंशतः नहीं पूछे गये प्रश्नों के उत्तर हैं । किन्तु यह अवधारणा काल्पनिक ही लगती हैं । प्रश्नव्याकरण की प्राचीनतम विषयवस्तु प्रश्नोत्तर रूप में थी या उसमें प्रश्नोंका उत्तर देनेवाली विद्याओं का समावेश था-समवायांग और नन्दीसूत्र के उल्लेखों के अतिरिक्त आज इसका कोइ प्रबल प्रमाण उपलब्ध नहीं है । प्राचीनकाल में ग्रन्थों को प्रश्नों के रूपमें विभाजित करने की परम्परा थी। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण उदाहरण आपस्तम्बीय धर्म सूत्र है जिसकी विषयवस्तुको दो प्रश्नों में विभक्त किया है । इसके प्रथम प्रश्नमें ५१ पटल और द्वितीय प्रश्न में ११ पटल हैं । यह सम्पूर्ण ग्रन्थ प्रश्नोत्तर रूप में भी नहीं है । इसी प्रकार बौधायन धर्मसूत्र की विषयवस्तु भी प्रश्नों में विभक्त है । अतः प्रश्नोत्तर शैली में होने के कारण या प्रश्नविद्या से सम्बन्धित होने के कारण इसे प्रश्नव्याकरण नाम दिया गया थायह मानना उचित नहीं होगा। वैसे इसका प्राचीननाम वागरण' (व्याकरण) ही था । ऋषिभाषित में इसका इसी नाम से उल्लेख है । प्राचीनकाल में तात्त्विक व्याख्या को व्याकरण कहा जाता था ।
प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु -
प्रश्नण्याकरण की विषयवस्तु के सम्बन्ध मे अन्य ग्रन्थों में जो निर्देश हैउससे वर्तमान प्रश्नव्याकरण निरचय ही भिन्न है । यह परिवर्तन किस रूपमें
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