Book Title: Jain Agam Sahitya
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 209
________________ जैनागम एव उपनिषद् : कुछ समानताए १८५ जब जीव कर्मो से प्रभावित हो जाता है तब उसके स्वाभाविक रूप पर आवरण आ जाता है, जैसे:-बादलों के द्वारा सूर्य पर आवरण आ जाता है और उसका प्रकाश छुप जाता है । जीव कर्मसे क्यों प्रभावित होता है ? कषाय के कारण । कषाय के चार प्रकार हैं-क्रोध, मान, माया तथा लोभ ।२° उपनिषदें बन्धन के कारण के रूपमें मायाको प्रस्तुत किया गया है । मायाके कारण शुद्ध आत्मा शरीर धारण करता है और काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि प्रमादोंका शिकार होता है । वह सत्यको असत्य और असत्यको सत्य समझता है । वह भ्रममें पडनेके कारण सुख-दुख भोगता है । जन्म-मरणसे छुटकारा पा जाना मोक्ष है । इसे परमानन्द, आत्मज्ञान, ब्रह्मलीन होना आदि भी कहते हैं । आचारांग सूत्रमें आत्मबोध पर अधिक बल दिया गया है जिससे आत्माका ज्ञाता रूप एवं अद्वैतभाव पर प्रकाश पड़ता है जो इस प्रकार है - "जिसको तुम मारना चाहते हो वह तुम ही हो। जिसको तुम शासित करना चाहते हो वह तुम ही हो । जिसको तुम परिताप देना चाहते हो वह तुम ही हो ।"२२ इस उक्तिमें आत्माका उदार अद्वैत भाव प्रकट होता है क्योंकि अपने चैतन्यरूपमें सभी जीव समान हैं । फिर आगे कहा गया है - "जो आत्मा है वह विज्ञाता है, जो बिज्ञाता है, वह आत्मा है । जिससे जाना जाता है वह आत्मा है, जाननेकी इस शक्तिसे ही आत्मा प्रतीत होता है ।"२३ इस लिए आत्मजागरणको महत्त्व दिया गया है । उपनिषदें तो आत्माको परम तत्त्व माना गया है। इसलिए कहा गया है कि यदि हम आत्माको जान लेते हैं तो अन्य सभी कुछ भी जान लेते हैं ।" किन्तु आत्माको जानना भी कोई आसान काम नहीं है । उसके अद्वैत रूपको समझना अत्यंत कठिन है । साधक 13. Seminar on Agama Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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