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डा. वशिष्ट नारायण सिन्हा, वाराणसी
जो आत्माको जानना चाहता है उसे किस प्रकार साधना करनी चाहिए इस बातको ध्यानमें रखते हुए सूत्रकृतांगमें कहा गया है-"जिस तरह कछुआ अपने अंगोंको समेटकर अपनेको खतरेसे दूर रखता है उसी तरह साधक भी अपनी इन्द्रियोंको समेटकर अपनेको अध्यात्म योगके द्वारा अन्तर्मुखी बनावे तथा पापसे मुक्त रहे । २५ ठीक ऐसी ही बात गीतामें कही गयी है । स्थितप्रज्ञके लक्षणोंको बताते हुये कृष्णने कहा है -
"कछुआ जिस प्रकार अपने अंगोंको समेट लेता है उसी प्रकार साधक जब सब ओरसे अपनी इन्द्रियोंको विषयोंसे समेट लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर
हो जाती है ।"२६ इस प्रकार जैनागम तथा उपनिषद्के बीच विभिन्न स्थानों पर समानताएँ मिलती हैं।
टिप्पणी
१. मुण्डक उपनिषद् 3-1-8, २. भगवतीसूत्र, 6.10 ३. उपयोगो लक्षणम् , तत्त्वार्थ सूत्र 2.8
Its real nature is pure conciousness, selfshining and self proved and always the same : Dr. C. D. Sharma, Indian Philosophy, Chap. - The Vedas and the Upani.
sads, p. 10. ५. नेरइया मुत्ता, नोजागरा-भगवतीसूत्र 16.6
६. तत्त्वार्थ सूत्र 2.1 : ७. माण्डूक्य उपनिषद्-1.2.7,
८. तत्त्वार्थ सूत्र, 2. 10-20. ९. तैत्तिरीय उपनिषद्-2.1.5, १०. जीवा सिय सासया, सिय असासया ।
दव्वठ्याए सासया, भावठ्ठयाए असासया । भगवतीसूत्र, 7.2 ..
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