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वैदिक धर्म सूत्रगत यतिधम ...आचार की तुलना
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शास्त्र का भी निरूपण एवं प्रतिपादन किया। प्रत्येक धर्म परम्परा में आचारविषयक पृथक्-पृथक् धारायें मिलती हैं यथा-वैद्रिक मीमांसा परम्परा में "पूर्व मीमांसा" आचार प्रधान है, बौद्ध परम्परा में "हीनयान" आचार प्रधान है और जैन परम्परा आचार प्रधान है जिसमें 'अहिंसा' को मुख्य स्थान है ।
प्रत्येक साहित्य अपने-अपने युग का प्रतिबिम्ब होता है । कवि हो या लेखक, इतिहासकार हो या प्रबन्धकार सब अपने अपने युग का प्रतिनिधित्व करते हैं और उनकी रचनाओं में उस युग की सभ्यता और संस्कृति प्रतिबिम्बित होती है यथा -उस युग की मान्यतायें, रहन-सहन, खान-पान, मनन-चिन्तन, आचारव्यवहार आदि सभी वहाँ चित्रित होते हैं । समयानुसार परिस्थितियों में विभिन्न परिवर्तन आने के कारण उस समय के आदर्शों में भी परिवर्तन हो जाते हैं । वैदिक और जैन धर्म ग्रन्थों में आचार सम्बन्धी चित्रण आये हैं इनमें यत्रतत्र कुछ भिन्नता भी है । लेकिन कुछ आचार सभी ग्रन्थों में शाश्वत पाये जाते हैं यथा - सत्य बोलना, अहिंसा-जीवों पर दया करना आदि ।
वैदिक धर्म सूत्रो में “आचार" पर पूर्ण प्रकाश डाला है यद्यपि धर्मशास्त्रकारों ने आचारशास्त्र के सिद्धान्तों का सूक्ष्म एवं विस्तृत विवेचन उपस्थित नहीं किया है और न उन्होंने कर्तव्य, सौख्य या पूर्णता (परम विकास) की धारणाओं का सूक्ष्म एवं अविहत विश्लेषण ही उपस्थित किया है किन्तु इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिये कि धर्मशास्रकारोंने आचारशास्त्र के सिद्धान्तों को छोड़ दिया है अथवा उन पर कोइ ऊँचा चिन्तन नहीं किया है । वैदिक धर्मसूत्रकारोंने वर्णव्यवस्था पर अत्यधिक जोर दिया है और प्रत्येक वर्ण के लिये एवं प्रत्येक वर्गविशेष के लिए कुछ विशेष आचार संहिताये निर्मित की हैं। उदाहरणार्थ ब्राह्मण वर्ण के लिए कुछ विशेष आचार बतलायें हैं तो क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के व्यक्तियों के लिये अलग-अलग आचार संहितायें निर्मित की गई हैं। इसी प्रकार प्रत्येक वर्ग विशेष के लिये भी अनेकों आचार बताये गये हैं जिनमें राजा, प्रजा, पुरोहित, मन्त्री, गृहस्थ, मुनि इत्यादि हैं। इन
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