Book Title: Jain Agam Sahitya
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

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Page 285
________________ जैन आगम साहित्य में कथाओं के प्रकार २६१ जैन आगम-साहित्य और उनकी व्याख्याओं में उल्लिखित जैनकथाएं वैराग्यरस प्रधान ही रही हैं जिनसे पाठकों का मन सांसारिक विषयवासनाओं से निवृत्त होकर अध्यात्म की ओर उन्मुख हो सके । दशवैकालिक नियुक्ति (२१२-२१५) में उल्लेख है कि जैनश्रमणों को किस प्रकार की कथा सुनानी चाहिए : ___ “जिस कथा को सुनकर शगार-रस उद्दीप्त हो, मोह जाज्वल्यमान हो और उत्तेजना जागृत हो, ऐसी कथा श्रमण को न कहनी चाहिए। उसे ऐसी ही कथा सुनाना योग्य है जिसमें तप और नियम का विवेचन हो और जिसके श्रवण से वैराग्य माव की वृद्धि हो।" यहां अर्थ, काम, धर्म और मिश्रित कथाओं के भेद से कथा के चार प्रकारों का प्रतिपादन किया गया है। किन्तु आगे चलकर कुवलयमाला के कर्ता दाक्षिण्यचिन्ह उद्योतनसूरि (८वी सदी ई.) ने अर्थ एव कामकथा के पूर्व धर्मकथा को प्रमुखता प्रदान की है । आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निर्वे दनी के भेद से धर्मकथा चार प्रकार की कही गयी है। दशवैकालिक-नियुक्तिकार की भांति हरिभद्रसूरिने भी उपर्युक्त चार कथाओं में अर्थकथा को प्रमुख माना है । उन्होंने असि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, धातुवाद तथा अर्थोपार्जन के हेतु साम, दण्ड, भेद तथा उपप्रदान द्वारा अर्थ की सिद्धि का उल्लेख किया है । अर्थोपार्जन के लिए विदेश-यात्रा पर जाने वाले कितने ही सार्थवाहों और व्यापारियों की साहसिक कथाए जैनग्रंथों में संग्रहीत हैं। अपनी धर्म कथाओं को रोचक एवं प्रभावशाली बनाने हेतु जैन विद्वानों ने कामकथा का भी आश्रय लेना उचित समझा । मलधारि राजशेखरसूरि (१४ वीं शताब्दी ई०) ने अपने विनोदात्मक कथासंग्रह (१) (अपरनाम कथाकोश) में कमलश्रेष्ठी के पुत्र की कथा प्रस्तुत की है। जब उसके पुत्र को दो धर्म गुरु अपने धर्मोपदेश द्वारा सुमार्ग पर न ला सके तो उसे तीसरे धर्म गुरु के सुपुर्द किया गया जिसने अपने प्रवचन में गंगार रस का पुट देकर उसे धर्म के प्रति उन्मुख किया। इस संबंध में वसुदेवहिंड़ि के मज्झिमखंड की भूमिका (पभा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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