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डॉ. पुष्पलता जैन परम्परा धवला (१३.५.४.२६.११) चारित्रसार(पृ.१३७)अनगारधर्मामृत(७३७) आदि ग्रंथों में देखी जा सकती है । उमास्वातिने कुछ परिवर्तन के साथ नव भेद ही माने हैं। उन्होंने मूल को छोड दिया है और श्रद्धान के स्थान पर उपस्थापनाको स्वीकार किया है । ठाणंग (८.३, सूत्र ६०५)ने अनवस्थाप्य और पारांचिक छोडकर कुल आठ भेद माने हैं । उसी में अन्यत्र (१०.३,सूत्र ७३३) यह संख्या भगवती जैसी दस भी मिलती है। ठाणंग (४.१ सूत्र २६३ ) प्रायश्चित्त के मात्र चार भेदों का उल्लेख भी करता है – ज्ञान, दर्शन, चारित्र
और व्यक्तकृत्य प्रायश्चित्त (गीतार्थ मुनि द्वारा पापविशोधक कृत्य) । यहीं उसके चार अन्य प्रकार भी दृष्टव्य हैं-प्रतिसेवना ( प्रतिषिद्ध का सेवन करना ) २. प्रायश्चित्त ( एक जातीय अतिचारों की शुद्धि करना) ३. आरोपना प्रायश्चित्त ( एक ही अपराध का प्रायश्चित्त बार बार लेना ) ४. परिकुंचना प्रायश्चित्त ( छिपाये अपराध का प्रायश्चित्त लेना )। भगवतीसूत्र (२५.७) में यह संख्या बढकर पचास तक पहुँच गयी है-दस प्रायश्चित्त, दस प्रायश्चित्त देने वाले के गुण, दस प्रायश्चित्त लेनेवाले के गुण, प्रायश्चित्त के दस दोष और प्रतिसेवना के दस कारण।
प्रायश्चित्त का यह सारा वर्गीकरण कदाचित् व्यक्ति के परिणाम और उसकी मनोवृत्ति पर आधारित रहे हैं । उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने पर यह तथ्य और अधिक स्पष्ट हो सकता है। आचार्यों ने अपराधों की संख्या को सीमित करने की अपेक्षा प्रायश्चित्त को सीमित करके उसे दस भेदों में वर्गीकृत कर दिया है जिनके आधार पर साधक अप्रशस्त भावों से मुक्त होकर प्रशस्त भावों में स्वयं को प्रतिष्ठित कर लेता है । १. आलोचना
निष्कपट भाव से प्रसन्नचित्त आचार्य के समक्ष आत्म-दोषों को अभिव्यक्त करना आलोचना है। आलोचना करके साधक पुनः पूर्वस्थिति में पहुँच जाता है । सच्चा आलोचक वही हो सकता है जो जाति, कुल, विनय, ज्ञान,
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