Book Title: Jain Agam Sahitya
Author(s): K R Chandra
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 279
________________ जैन आगम साहित्य में कथाओं के प्रकार २५५ कठिनाइयों से गुजरना पता है, कैसे कैसे खतरों का सामना करना पड़ता है देवी-देवताओं आदि की सहायता से इन खतरों पर काबू पाकर वह किस प्रकार हंसी-खुशी का स्वस्थ जीवन व्यतीत करता है - यह सब कथा-कहानियों में प्रतिबिंबित होता है। ज्ञातव्य है कि इन कहानियों में नैतिकता, धार्मिकता और दार्शनिकता का अंश नहीं रहता, ये स, कहानियां होती हैं वास्तविक जीवन से जुड़ी हुई जिन्हें कहानी कहनेवाला बड़े नाटकीय ढंग से प्रस्तुत करता है । कभी गंभीर बनकर, कभी सरल बनकर, कभी नाक-मुंह सिकोडकर, कभी भौंहें चटाकर, कभी सिर हिलाकर और कभी हाथ चलाकर - विविध भाव-भंगिमाओं द्वारा कहानी प्रस्तुत की जाती है, जिसे सुनकर श्रोतागण लोटपोट हो जाते हैं और विस्मय से विस्फारित नेत्रों से देखते रह जाते हैं । इस प्रकार की कहानियां सर्व सामान्य होती हैं, वे किसी जाति, संप्रदाय अथवा किसी प्रदेश - विशेष की संपत्ति नहीं होती, उनका उपयोग कोई भी कर सकता है । आगे चलकर जैसे-जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार सामाजिक परिस्थितियों में परिवर्तन आने लगा और नैतिकता के मूल्यों का अंकन होने लगा, धर्मगुरुओं की कथा - कहानियों में नैतिकता का समावेश होता चला | लोक- प्रचलित इन लौकिक कथा-कहानियों का कलेवर पुराना ही था जो परंपरा से चला आ रहा था, लेकिन अब कहानी के अंत में, उसके निष्कर्ष - स्वरूप कोई धार्मिक अथवा नैतिक शिक्षा जोड दी गयी । महाभारत, जातककथाएं, प्राकृत की जैनकथाए ं, तंत्राख्यायिका, पंचतत्र, हितोपदेश, आदि उसी काल की उपज है जबकि लौकिक कथा-कहानियों में धर्म और नीति का समावेश किया जा रहा था । 'कथांच्छलेन बालानां नीतिस्तदिह कथ्यते ' ( कथा के बहाने यहां बालकों के लिए नीति का प्ररूपण किया जा रहा है ) हितोपदेश का यह वाक्य इस दृष्टि से अत्यन्त सार्थक है | बौद्धों के नंगलीस जातक ( १२३ ) में वाराणसी के किसी आचार्य की कहानी आती हैं जो अपने जडमति शिष्य को उपमाओं द्वारा पढ़ाने के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330