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जैन आगम साहित्य में कथाओं के प्रकार
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कठिनाइयों से गुजरना पता है, कैसे कैसे खतरों का सामना करना पड़ता है देवी-देवताओं आदि की सहायता से इन खतरों पर काबू पाकर वह किस प्रकार हंसी-खुशी का स्वस्थ जीवन व्यतीत करता है - यह सब कथा-कहानियों में प्रतिबिंबित होता है। ज्ञातव्य है कि इन कहानियों में नैतिकता, धार्मिकता और दार्शनिकता का अंश नहीं रहता, ये स, कहानियां होती हैं वास्तविक जीवन से जुड़ी हुई जिन्हें कहानी कहनेवाला बड़े नाटकीय ढंग से प्रस्तुत करता है । कभी गंभीर बनकर, कभी सरल बनकर, कभी नाक-मुंह सिकोडकर, कभी भौंहें चटाकर, कभी सिर हिलाकर और कभी हाथ चलाकर - विविध भाव-भंगिमाओं द्वारा कहानी प्रस्तुत की जाती है, जिसे सुनकर श्रोतागण लोटपोट हो जाते हैं और विस्मय से विस्फारित नेत्रों से देखते रह जाते हैं । इस प्रकार की कहानियां सर्व सामान्य होती हैं, वे किसी जाति, संप्रदाय अथवा किसी प्रदेश - विशेष की संपत्ति नहीं होती, उनका उपयोग कोई भी कर सकता है ।
आगे चलकर जैसे-जैसे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार सामाजिक परिस्थितियों में परिवर्तन आने लगा और नैतिकता के मूल्यों का अंकन होने लगा, धर्मगुरुओं की कथा - कहानियों में नैतिकता का समावेश होता चला | लोक- प्रचलित इन लौकिक कथा-कहानियों का कलेवर पुराना ही था जो परंपरा से चला आ रहा था, लेकिन अब कहानी के अंत में, उसके निष्कर्ष - स्वरूप कोई धार्मिक अथवा नैतिक शिक्षा जोड दी गयी । महाभारत, जातककथाएं, प्राकृत की जैनकथाए ं, तंत्राख्यायिका, पंचतत्र, हितोपदेश, आदि उसी काल की उपज है जबकि लौकिक कथा-कहानियों में धर्म और नीति का समावेश किया जा रहा था । 'कथांच्छलेन बालानां नीतिस्तदिह कथ्यते ' ( कथा के बहाने यहां बालकों के लिए नीति का प्ररूपण किया जा रहा है ) हितोपदेश का यह वाक्य इस दृष्टि से अत्यन्त सार्थक है |
बौद्धों के नंगलीस जातक ( १२३ ) में वाराणसी के किसी आचार्य की कहानी आती हैं जो अपने जडमति शिष्य को उपमाओं द्वारा पढ़ाने के लिए
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