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डॉ. जगदीशचन्द्र जैन आगे चलकर मल्लीचरिय नामक आठवें अध्ययन में अगडदर्दुर (कूपमंड्क) और समुद्रदर्दुर (समुद्री मेंढक) का सुंदर संवाद प्रस्तुत किया है जो कहानीकला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है । इस संवाद के माध्यम से कांपिल्यपुर के राजा जितशत्र को प्रबुद्ध किया गया है । नौवें अध्ययन में जिनपालित और जिनरक्षित नामक माकंदीपुत्रों के कथानक के माध्यम से श्रामण्य दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् सांसारिक कामभोगों के प्रलोभन से दूर ही रहने का उपदेश है । इस कथा की तुलना बौद्धों के वलाहस्स जातक (१९६) और दिव्यावदान की कथा से की जा सकती है।
मूलसूत्रों में कथा के प्रकारों की दृष्टि से उत्तराध्ययन, दशवकालिक और आवश्यक सूत्र-टीकाएं महत्वपूर्ण हैं । धार्मिक-काव्य की दृष्टि से उत्तराध्ययन उल्लेखनीय है : यहाँ उपमा, दृष्टान्त, रूपक, प्रश्न-उत्तर और संवाद आदि के माध्यम से त्याग, वैराग्य एवं संयम में दृढ रहने का बोध प्रदान किया गया है। उत्तराध्ययन और दशवैकालिक की तुलना बौद्धों के धम्मपद, सुत्तनिपात और जातकों से की गयी है, अतः इन सूत्रों का महत्व और बढ़ जाता है।'
उत्तराध्ययन के विनय नामक प्रथम अध्ययन में घोड़े की उपमा द्वारा मुमुक्षु को उपदेश देते हुए कहा है : जैसे मरियल घोड़े को बार-बार चाबुक मारने की जरूरत होती है, वैसे मुमुक्षु को बार-बार गुरु के उपदेश की अपेक्षा न करनी चाहिए। तथा जैसे अच्छी नस्ल का घोडा चाबुक देखते ही ठीक रास्ते पर चलने लगता है, उसी प्रकार गुरु के आशय को समझ कर पाप कर्म से दूर रहना चाहिए । औरभ्रीय नाम के सातवें अध्ययन में क्षणस्थायी विषयभोगों से दूर रहने का उपदेश देने के लिए मेढे और काकिणी (एक बहुत छोटा सिक्का ) को उपमान के रूप में प्रस्तुत किया गया है । यहां सांसारिक कामभोगों को कुश के अग्रभाग पर स्थित ओस की बूंद के समान क्षणस्थायी बताते हुए, आयु की अल्पता के कारण, कल्याण-मार्ग के प्रति जागरूक रहने का आदेश दिया गया है । अन्य कथा-प्रकारों में कापिलीय अध्ययन, नमिप्रव्रज्या
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