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डॉ प्रेमसुमन जैन
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दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों हरिवंशपुराण ( जिनसेन) एवं महापुराण ( पुष्पदन्त ) में ऋषभदेव के निर्वाण की तिथि का उल्लेख नहीं है । पुष्पदन्त इतना कहा है कि जब ऋषभदेव की आयु के चौदह दिन शेष रह गये तब वे कैलाश पर्वत पर पहुंचे और पूर्णिमा के दिन पर्यं क आसन में बैठ गये । यह किस माह की पूर्णिमा थी, इसका उल्लेख ग्रन्थ में नहीं है । अन्त में केवल इतना कहा गया है कि वे अपने स्वभाव से जाकर परमपद में लीन हो गये । जिनसेन ने अपने संस्कृत महापुराण में इस बात को और स्पष्ट किया है कि जब आयुष्य के चौदह दिन शेष रह गये तब योगों का निरोधकर पोषमास की पूर्णमासी के दिन ऋषभदेव कैलाशपर्वत पर स्थित हो गये और माघकृष्ण चतुर्दशी को उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया ।
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श्वेताम्बर परम्परा के ग्रन्थों में समवायांग सूत्र में कहा गया है कि ऋषभ अर्हत् तीसरे सुषमा-दुपमा आरे के अन्तिम भाग में ८९ अर्धमासों ( ३ वर्ष, माह १५ दिन) के शेष रहने पर कालधर्म को प्राप्त हुए । ' कल्पसूत्र में उल्लेख है कि तीसरे आरे के मात्र ३ वर्ष साढे ८ माह शेष बचने पर हेमन्त ऋतु के तीसरे महीने एवं पांचवे पक्ष में माघकृष्णा त्रयोदशी को अष्टापद पर्वत से ऋषभदेव कालधर्म को प्राप्त हुए । इसी का समर्थन जम्बूद्धीपप्रज्ञप्ति में हुआ है । परवर्ती ग्रन्थ भी इसी तिथि का अनुसरण करते है ।
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वैदिक ग्रन्थों में ऋषभदेव एवं शिव के स्वरूप में कई बातों में समानता प्राप्त होती है । ईशानसंहिता में कहा गया है कि माघ कृष्णा चतुर्दशी को आदि देव शिवलिंग के रूप में प्रकट हुए। उन्हें शिवपद की प्राप्ति होने से इस तिथि को ' शिवरात्रि' के रूप में याद किया जाता है ।
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उपर्युक्त सभी परम्पराओ में प्रायः माघकृष्णा चतुर्दशी या त्रयोदशी को भगवान् ऋषभदेव की निर्वाणतिथि मानी गयी है एवं तीसरे आरे के ३ वर्ष साढ़े ८ माह शेष भी माने गये हैं । भारतीय परम्परा में नये वर्ष विक्रम सम्वत् का प्रारम्भ श्रावणकृष्णा प्रतिपदा से होता है | श्रावणकृष्णा प्रतिपदा से
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