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डॉ. पुष्पलता जैन वाले दोषों से संवर द्वारा बचता है और प्रत्याख्यान द्वारा भावी दोषों को रोकता है। ____ अपराध छोटा होने पर भी प्रतिक्रमण किया जाता है | भावपाहुड (७९) में ऐसे छोटे अपराधों का उल्लेख किया है जैसे-छहो इन्द्रियों तथा वचनादिक का दुष्प्रयोग, अपना हाथ-पैर आचार्य को लग जाना, व्रत-समिति आदि में दोष आ जाना, पैशून्य तथा कलह करना, वैय्यावृत्य-स्वाध्यायादि में प्रमाद करना आदि ।
पडिक्कमणावस्सयं में भी एक लम्बी सूचि दी है जिससे साधक मुनिको बचना चाहिए-स्थूल-सूक्ष्म-हिंसा-गमन दोष, आहार दोष, शल्य, मनवचनकाय-दोष, कषाय, मद, अतिचार, समिति-गुप्ति-दोष, सत्रह प्रकारका असंयम, १८ प्रकार का अब्रह्मचर्य, २० असमाधिस्थान, २१ सबल, ३३ आसायतन आदि ।
__ यह प्रतिक्रमण व्रत-रहित स्थिति में भी आवश्यक बताया है । यह शायद इसलिए कि अव्रती साधक का भी झुकाव व्रत की ओर रहता ही है। चारित्रमोहनीय का विशिष्ट क्षयोपशम न होने से व्रत ग्रहण करने में वह कमजोरी महसूस करता है, पर व्रत धारण करने की शुभ प्रतीक्षा तो वह करता ही है । इससे व्रतधारियों के प्रति सम्मान का भाव बढता है तथा व्रत पालन की दिशा में भी आगे आता है।
सामान्य रूप से प्रतिक्रमण दो प्रकार का होता है-द्रव्य प्रतिक्रमण और भाव प्रतिक्रमण | उपयोग रहित सम्यक् दृष्टि का प्रतिक्रमण द्रव्य प्रतिक्रमण है। मुमुक्षु के लिए भाव प्रतिक्रमण ही उपादेय है। कर्मों का निर्जरा-रूप वास्तविक फल भावप्रतिक्रमण से ही होता है । वर्तमान में लगे दोषों को दूर करना और भविष्यमे लगनेवाले दोषों को न होने देने के लिए सावधान रहना प्रतिक्रमण का मुख्य उद्देश्य है।
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