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वैदिक धर्म सूत्रगत यतिधम....आचार की तुलना
_वैदिक धर्म सूत्रकार गौतम के अनुसार संन्यासी (यति) को ग्राम में भिक्षाटन के लिये केवल एक बार जाना चाहिये । जैनागम के मूलसूत्रों में दश
कालिक का भी समावेश किया जाता है इसके अनुसार महाचार कथा नामक छठे अध्ययन में श्रमण को एकभक्त भोजन करनेवाला कहा गया है । सामान्यत: दिन में एकबार भोजन करना ही मुनि के लिये श्रेयस्कर है । उत्तराध्ययन के छब्बीसवें अध्ययन (सामाचारी) में भी इस सिद्धान्त का समर्थन है।
वशिष्ठ धर्म सूत्र में बताया गया है कि संन्यासी को भरपेट भोजन नहीं करना चाहिये, उसे केवल उतना हा खाना चाहिये जिससे वह अपने शरीर व आत्मा को एक साथ रख सके, उसे अधिक पाने पर न तो सन्तोष या प्रसन्नता प्रकट करनी चाहिये और न कम मिलने पर निराशा । आपस्तम्बधर्मसूत्र तथा बोधायन धर्मसूत्र में यति को ८ ग्रास भोजन करने का विधान बतलाया गया है । जैन आगमों में मुनि की आचार-चर्या में भूख से कम भोजन करने का विधान बतलाया गया है ! यहाँ मुनि के लिए सामान्य ३२ ग्रास भोजन से कम भोजन करने को कहा गया है । औपपातिक सूत्र में इस बारे में विस्तृत वर्णन किया गया है : उत्तराध्ययन (१६-८) में ब्रह्मचर्यरत भिक्षु को परिमित भोजन करने को कहा गया है तथा मात्रा से अधिक भोजन न करने को भी कहा गया है । ऊनोदरी करें – अर्थात् कम खायें ।
लघुविष्णु धर्मसूत्र में कह। गया है कि यति (संन्यासी) का भिक्षापात्र तथा जलपात्र मिट्टी, लकडी, तुम्बी या बिना छिद्र वाले बांस का होना चाहिये किसी भी दशा में उसे धातु का पात्र प्रयोग में नहीं लाना चाहिये । जैनागम आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की प्रथम चूला के छठे अध्ययन में कहा गया है कि निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को आलाबु, काष्ठ व मिट्टी के पात्र रखना कल्प्य है तथा धातु के पात्र रखना अकल्प्य ।
शंख धर्मसूत्र एवं विष्णु धर्मसूत्र के अनुसार यति(सन्यासी) को भलीभाँति आगे भूमिनिरीक्षण करके चलना चाहिये, पानी छान कर पीना चाहिये । जैनागम
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