________________
वैदिक धम सूत्रगत यतिधर्म ....आचार की तुलना आचार शास्त्रोंमें भी मुनिके लिए सत्य नामक महाव्रत बतलाया गया है। इसको संक्षेपमें कहा जाये तो भिक्षुको क्रोधादि कषायोंका परित्याग कर, समभाव धारण कर विवेकपूर्वक संयमित सत्य भाषाका प्रयोग करना चाहिये ।
__ गौतम धर्मसूत्रके अनुसार संन्यासीको ब्रह्मचारी होना चाहिये और सदा ध्यान एवं आध्यात्मिक ज्ञान के प्रति भक्ति रस्वनी चाहिये । जैनागम उत्तराध्ययन -सूत्रके छब्बीसवें अध्ययनके प्रारम्भमें श्रमणकी सामान्य चर्या रूप सामाचारीके विषयमें वर्णन किया गया है जिसके अनुसार मुनिको दिन को चार भागोंमें विभक्त कर अपनी दिनचर्या सम्पन्न करनी चाहिए । उसे दिनके प्रथम प्रहरमें मुख्यतः स्वाध्याय, द्वितीयमें ध्यान, तृतीयमें भिक्षाचर्या तथा चतुर्थमें फिर स्वाध्याय करना चाहिये । इससे प्रतीत होता है कि श्रमणकी दिनचर्यामें अध्ययनका सर्वाधिक महत्त्व है इसके बाद ध्यानको महत्त्व दिया गया है ।
संन्यासीके ब्रह्मचर्य व्रतके विषयमें वैदिक धर्मसूत्र ग्रन्थोंकी भॉति जैनागमोंमें भी वर्णन मिलता है । उत्तराध्ययनके 16वें अध्ययनमें तथा प्रश्नव्याकरण सूत्रमें विविध उपमाओंके द्वारा ब्रह्मचर्यकी महिमा और गरिमा गायी गयी हैं।
__ आपस्तम्ब धर्म सूत्रके अनुसार (1.9-21) संन्यासीको भिक्षा से ही प्राप्त भोजन करना चाहिये । उत्तराध्ययन (35-15)के अनुसार भिक्षुको भिक्षावृत्तिसे ही भोजन प्राप्त करना चाहिये, विक्रय से नहीं ।।
पैदिक धर्मसूत्रकारोंके अनुसार मुनिकी आचार संहितामें कहा गया है कि संन्यासीको सदा अकेले घूमना चाहिये, नहीं तो मोह एवं विछोह से वह पीडित हो सकता हैं । दक्षस्मृतिमे (7:34.38 ) इस बात पर यां बल दिया गया है कि वास्तविक संन्यासी अकेला रहता है, जब दो एक साथ टिकते हैं तो दोनों का एक जोडा हो जाता है और जब तीन एक साथ टिकते हैं तो वे ग्रामके समान हो जाते हैं और यदि तीनसे अधिक एक साथ टिकते हैं तो वे नगर के समान हो जाते हैं । जैनागम आचारांगके प्रथम श्रुतस्कन्धके पंचम अध्ययन के प्रथम उद्देशकमें एकलविहारीको अमुनि कहा गया है लेकिन यह विषय-वासना एवं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org