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जैनागम एवं उपनिषद : कुछ समानताएँ
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जैनागम में कहा गया है कि जीव शाश्वत हैं और अशाश्वत भी ।" अपने मूलस्वरूप में यानि द्रव्य रूप में शास्त्रत है तथा भावरूप में यानि मनुष्यादि पर्यायों के रूप में अशाश्वत है । ईशोपनिषद आदि में बताया गया है कि आत्मा चल है और अचल भी दूर है और निकट भी । आत्मा अचल है इसका मतलब है कि वह नित्य हैं और चल है इसका अर्थ हैं कि वह अनित्य है । ये दोनों बातें एक ही दृष्टि से कही गयी हो एसी बात नहीं है क्योंकि एक ही दृष्टि से चल तथा अचल कहना अपने आप में विरोधी होगा । कोई भी चिन्तक एसा प्रतिपादन करने को तैयार नहीं होगा जो स्वयं विरोध प्रस्तुत करें। आत्मा यदि अचल है तो अपने मूल स्वरूप के कारण और चल है तो नायिक प्रभावों के परिवर्तन के कारण । उसके बाह्य रूप रंग बदलते हैं लेकिन उसका जीवत्व नहीं बदलता । यहाँ पर जैनागम की तरह उपनिषद् भी सापेक्षतावादी जान पड़ते हैं ।
जैन मतानुसार एक अन्य निरूपण में जीव या आत्मा के तीन प्रकार होते हैं |
बहिरात्मा जो इन्द्रिय समूह को आत्मा के रूप में स्वीकार करता 1 अन्तरात्मा जो देह से अलग माना जाता है ।
परमात्मा जो कर्म के कलंक से मुक्त है उसे परमात्मा कहते हैं । उपनिषद् में भी आगा के तीन प्रकार गाने गये हैं ।
२.
वहिरात्मा या देहात्मा
शरीर से स्वतन्त्र वैयक्ति आत्मा
परमात्मा जिसमें व्यक्ति और वस्तु का भेद नहीं होता ।
जैन मतानुसार शुद्ध आत्मा में न भवभ्रगण, न जन्म, न जरा-मरण होते हैं और न तो रोग, शोक, कुल, योनि, जीवस्थान तथा मार्गणास्थान हो । न उसमें वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श होते हैं और न स्त्री, पुरुष, नपुंसक इत्यादि पर्याय और संहनन ही होते हैं | वह अरस, अरूप, अव्यक्त, अशब्द, चैतन्य, अलिंग
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