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प्रज्ञा ठांकर सहित देव, गंधर्व और मार जैसे भी अ-जित (उनके विजय को मिथ्या करना) नहीं कर सकते ।) (ब) नो इन्दियग्गेझ अमुत्तभावा अमुत्तभावा वि य होइ निच्चो ।
अज्झत्थहेउनिययस्स बन्धो संसारहेउं च वयन्ति बन्धं ॥ उ.सू.१४-१९ [(आत्मा) अमूर्त होने के कारण इन्द्रियग्राह्य नहीं है । अमूर्त होने से ही वह नित्य है । अपने सांसारिक बंधन का हेतु आत्मा में निहित है । इसी बंधन को संसार का हेतु माना गया है ।]
___ अत्ता हि अत्तनो नाथो को हि नाथो परो सिया ।
अत्ता हि सुदन्तेन नाथं लभति दुल्लभं ॥ धम्मपद-१६०-४ [आत्मा ही आत्मा का नाथ है, अन्य कौन उसका नाथ हो सकता है ? अतः उदात्त (सुदन्त) आत्म द्वारा ही दुर्लभ नाथ प्राप्त होता है ]
अत्तना व कतं पापं अत्तना संकिलिस्सति । अत्तना अकतं पापं अत्तना व विसुज्झति ।
सुद्धी असुद्धी पच्चत्तं नाो कर्ज वि सोधये ॥ -धम्मपद-१६५-९ [आत्मा द्वारा किये गये पाप से आत्मा को ही क्लेश होता है । निष्पाप आत्मा से आत्मा शुद्ध होती है । प्रत्यात्मा की प्रत्येक व्यक्ति की शुद्धि या अशुद्धि अन्य कोई नहीं कर सकता !] _ 'अत्तना चोदयत्तानं पटिमासे अत्तमत्तना ।' -धम्मपद-३७९-२० (आत्मा के द्वारा ही आत्मा की खोज करें, आत्मा द्वारा आत्मा का परीक्षण करें।) _ 'उद्धरेदात्मनात्मानम्........। गीता-६-५ और ५-३४-६२ में आत्मा से आत्मा की खोज करो । आत्मा ही आत्मा का बंधु है और आत्मा ही आत्मा का रिपु है । ऐसी महाभारत की उक्ति के साथ इस गाथा की तुलना की जा सकती है।
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