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डो. मिथिलेश कुमारी मिश्र शिला पर निर्मित ये आचार संहिताएं वर्तमान हिंसात्मक परिवेश में अधिक उपयोगी हो गयी हैं । आज उनके चिन्तन, मनन व आचरण की अनिवार्यता होती जा रही है।
इस तरह से ब्राह्मण और श्रमण व्यवस्थाओं के अन्तर्गत साधु-आचार में समानता होने के साथ ही एक मौलिक भेद भी है । स्मृति की व्यवस्था मे यद्यपि संन्यास मोक्षप्रद है तथापि गार्हस्थ्य की उपेक्षा कर यह सेवनीय नहीं है। गार्हस्थ्य की प्रधानता सिद्ध करने के लिए स्मृतिकार ने कहा हैं कि वायु का आश्रय प्राप्त कर के ही सभी आश्रमी (अन्य तीनों आश्रमी) जीते हैं। सभी आश्रमों में वेद और स्मृति की विधि के अनुसार चलनेवाला गृहस्थ श्रेष्ठ कहा गया है क्योंकि वह अन्य आश्रमों की रक्षा करता हैं । जैसे सभी नदी-नद समुद्र में ही आश्रय पाते हैं । वैसे ही सभी आश्रमी गृहस्थाश्रम से ही सहारा पाते हैं। श्रमण व्यवस्था में भी गार्हस्थ्थ या श्रावक धर्म का निरूपण है किन्तु श्रावक की सिद्धि इसी में है कि वह यथाशीध्र साधु अनगार धर्म में प्रविष्ट हो जायें। इसके लिए ११ प्रतिमाओं का विधान है जिनके माध्यम से सीढ़ी-दर सीढ़ी चढ़ता हुआ श्रावक मुनिधर्म की भूमिका में पहुँच जाता है । कृषि कर्म की ही नहीं परंतु पाचन क्रिया की भी गर्दा, गृहस्थ जीव के प्रति एक कठोर दृष्टि का सूचक है और अपनी आत्यन्तिकता में जिस डाल पर बैठे हैं उसी के उच्छेद के समान प्रतीत होता है । चिन्तकों के द्वारा बहुधा ऐसी आशंका भी व्यक्त की गई हैं कि गृहस्थ जीवन की ऐसी आत्यन्तिक उपेक्षा सामाजिक जीवन और मानव जाति की सन्तति ( Continuity ) पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती हैं किन्तु हमें तब तक ऐसी आशंकाओ पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है जब तक संसार में राग का पलडा विराग से भारी है, प्रवृत्ति निवृत्ति से गरीयसी हैं । जब तक ऐसी स्थिति नहीं आती विराग दृष्टि को कठोरतर करने की आवश्यकता बनी रहेगी क्योंकि मानवता को खतरा निरपेक्ष वैराग्य से नहीं अपितु उद्दाम राग से
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