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जैनागम एवं उपनिषद् : कुछ समानताएँ
डा० वशिष्ठ नारायण सिन्हा, वाराणसी
जैनागम श्रमण परम्परा (जैन) के आधार ग्रन्थ हैं तथा उपनिषद् वैदिक परम्परा के । इसलिए दोनों के बीच असमानताओं का पाया जाना स्वाभाविक और सहज है । किन्तु श्रमण तथा वैदिक दोनों ही परम्पराएँ भारतीय संस्कृति की दो शाखाएं हैं। दोनों का उद्गम एवं विकास भारत में ही हुआ है । काल में अन्तर हो सकता है परन्तु देश तो एक ही रहा है। दोनों में अन्तःसलिला के रूप में भारतीयता ही प्रवाहित होती है । जो समस्याएँ और उसके समाधान श्रमण परम्परा के हैं वही वैदिक परम्परा के भी हैं । ऐसी स्थिति में जैनागम और उपनिषद् के बीच समानताओं का पाया जाना असंभव नहीं है । हाँ, इतना ध्यान में अवश्य रखना होगा कि जो शब्द और वाक्य जैनागम में हो वही उपनिषद् में भी हो अथवा जो बातें उपनिषद् में कही गयी हों वहां अक्षरश: जैनागम में भी हों । समानताएँ देखने के लिए हमें सिद्धान्तों का विश्लेषण करना होगा ।
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जैनागम तथा उपनिषद निवृत्तिमार्ग को महत्त्व देते हैं । जैनागमने तो यज्ञादि का विरोध किया ही हैं । उपनिषद्ने भी वेदों में प्रतिपादित कर्मकाण्ड का विरोध किया है | मुण्डक उपनिषद्' में बल देकर कहा गया है कि मोक्ष की प्राप्ति ज्ञान से शुद्धि प्राप्त करने पर हो सकती है न कि दृष्टिवाणी, तप, कर्म आदि से । ज्ञान को महत्त्व देने के कारण ही इसे " ज्ञान काण्ड कहा गया है ।
जैनागम तथा उन पर आधारित ग्रन्थों में जीव के प्रधानतः दो प्रकार बताये गये हैं संसारी और मुक्त | जो संसार के बन्धन में फँसा हुआ है उसे संसारी कहते हैं तथा जो जन्म-मरण के बन्धन से निकल चुका है उसे मुक्त कहते हैं । उपनिषदों तथा उपनिषद् -आधारित ग्रन्थों में दो शब्द मिलते हैं
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