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डा० बिहारवल जैन अतः इन सब प्रलोभनों के बीच रहकर भी जो इनमें लिप्त नहीं होता है वही जागता है ।
उपदेश में आचार्य शिष्यों पर शासन करता है । किन्तु उपदेष्टा ही उपदिष्ट मार्ग से उपरत हो तो ऐसे आचार्य को आड़े हाथों लेते हुए ग्रंथकार कहता है :
भगन्ता अकरेन्ता य बन्धमोखपइण्णिणो । बाबा - विरियमेण समासासेन्ति अप्पय ॥
उ० सू० क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय, गा० ९. जो आचार्य बन्ध और मोक्ष के सिद्धान्तों की व्याख्या में कहते तो बहुत कुछ हैं परन्तु स्वयं आचरण में नहीं लाते वे ज्ञान - वाद में रत होकर केवल वाग्रवीर्य से अपने को आश्वस्त करते हैं । अर्थात् ऐसे आचार्य स्वयं बन्धन में पडवर सुक्ति-लाभ से वंचित हो जाते हैं और उनकी साधना निरर्थक हो जाती है। फलत: उनके उपयेश का प्रभाव भी निष्फल होता है ।
इस प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र में अनेक स्थलों पर गूढ - रहस्यों की ध्वनि कर के ग्रंथकार ने वस्तुतः गागर में सागर ही भर दिया है। इस में न केवल श्रमण संघ के शिष्टाचार का वर्णन है अपितु उस माध्यम से उत्सुक प्राणी को अपना कर्तव्य निश्चित करने की प्रेरणा दी गयी है । साहित्य, धर्म और दर्शन की त्रिवेणी इस ग्रंथ में शांतरस की सलिला का प्रवाह अध्यात्म के तटों से प्रवाहित हो रहा है जो इस कलि-युग की घोर अशांति को बहा ले जाने में सुतरा समर्थ है | आवश्यकता है इसके रसपान करने की ।
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