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डा० बिहारीलाल जैन जाल में फंसकर वैरानुबन्धि कमों से बंधे हुए होते हैं । वे मरकर नरक में ही जाते हैं । वहां उपदेश की यथार्थ बातों से चित्त-दीप्ति रूप ओज की अभिव्यक्ति हो रही है।
उत्तराध्ययन मत्र मोक्ष-मार्ग के साधकों का पाथेय है। अत: इसकी रचना सुन्दर एवं माधुर्य व्यंजक वर्णो अथवा शब्दों के रूप में हुई है । सहज, सरल एवं प्रचलित शब्द-गुम्फनात्मक शैली में साधु-संस्था के नियमों का उपदेश होने से भाषा में सामासिकता का प्राय: अभाव है । अत: इस ग्रंथ की शैली
वैदभी कहा जा सकता है। .. यह ग्रथ वनि तत्त्व की दृष्टि से उत्तम काव्य कहा जा सकता है । ध्वनि काव्य की आत्मा है। क्योंकि कवि लोग किसी विशेष अर्थ की रस-पूर्ण अभिव्यक्ति के लिए प्रतीयमानता का काव्य में समुचित सन्निवेश करते हैं। महाकवियों की वाणी में तो प्रतीयमान अर्थ ही अंगनाओं में लावण्य की तरह पृथक् रूप से आलोकित होता है। उत्तराध्ययन सूत्र उपदेशात्मक काव्य है। उपदेश में मुख्य–मुख्य विपयों का उल्लेख कर उन्हें व्यवहार एवं आचरण में लाने के लिए उचित निर्देश दिये हुए होते हैं। यहाँ पर भी आचार्य अपने शिष्यों को जीवन-निर्माण का उपदेश दे रहे हैं। आचार्य का कथन है कि टूटा जीवन पुनः साधा नहीं जा सकता 'असंखयं जीविय मा पमायए' (असंस्कृत, गा० १)। जीवन कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो टूट सकती है। अतः इस कथन का लाक्षणिक अर्थ होगा--जीवन का अध:पतन । इस अर्थ से यह ध्वनित होता है कि इस जीवन में यदि बुरे कार्य किये तो फिर कभी भी ऐसा अवसर नहीं आयेगा कि पतित जीवन का उद्धार हो सके । अतः जीवन-निर्माण के लिए ज्ञान, चरित्र और तप की साधना करनी चाहिये । ..इस भौतिक-युग में प्रत्येक प्राणी धन की लालसा से संत्रस्त हो रहा है। वह चाहे कितना ही धन अर्जित कर लेता हैं परन्तु उसे उससे तृप्ति नहीं होती है । संसारी जीवन की इस वित्तैषणा का कोई अन्त नहीं है। अत: ऐसे
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