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उत्तराध्ययन सूत्र में काव्यतत्व
समयाए सनणों होई बम्भचेरेण वम्मणी । नागेण य मुणी होई तत्रेण होइ तावसो || - उ० सू० यज्ञीय, गारु २९, ३०
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अर्थात् केवल सिर मुण्डन से कोई श्रमण नहीं होता ओम् का जाप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने मात्र से ही कोई मनि नहीं होता और कुश का चीवर पहनने मात्र से ही कोई तपस्वी नहीं होता अपितु समभाव से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है, ज्ञान से सुनि होता है और तप से तपस्वी होता है । यहाँ श्रमण, ब्राह्मण मुनि और तपस्वी का तुलनात्मक चरित उपस्थित किया गया है । उनकी भिन्नताद्योतक उपाधियाँ ही परस्पर भिन्न प्रतीत होती हैं, अन्यथा समभाव, ब्रह्मचर्य, ज्ञान और तप सभी में पारस्परिक साम्य और एक स्पष्ट है ।
ओज गुण की अभिव्यक्ति दीर्घ समास रचना से होती है किन्तु कभी-कभी ओज का प्रकाशक वह अर्थ भी होता है जो दीर्घ समास-रचना से रहित प्रसादगुणयुक्त पदों से अभिव्यक्त होता है ।'
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उत्तराध्ययन में इसी प्रकार के उपदेशात्मक अर्थ से ओज गुण की अभिव्यक्ति हुई है । जैसे
असंख्यं जीवि मा समायए जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं विजाणाहि जणे पमत्ते किष्णु विहिंसा अजया गहिन्ति ॥
जे पावकम्मेहि धणं मगुस्सा समाययन्ती अमई गहाय |
पहाय ते पासपर्यट्टिए नरे वेराणुबद्धा नरय उवन्ति ॥ उ० सू० असंस्कृत, गा०
अर्थात् टूटा जीवन सीचा नहीं किया जा सकता है । अतः प्रमाद करना उचित नहीं होता हैं। क्योंकि बुढापा आने पर कोई शरण नहीं है । प्रमादी,
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हिंसक और असंयमी मनुष्य समय पर किसकी शरण लेंगे यह विचारणीय है ।
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. जो भी मनुष्य अज्ञानवश पाप कार्यों से घनोपार्जन करते हैं और वासना के
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