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उत्तराध्ययनसूत्र में काव्यतत्व
१७७ व्यक्ति का मोहान्धकार घना हो जाता है। उसका विवेक नष्ट हो जाता है । उसकी दशा उस व्यक्ति की तरह हो जाती है जो अंधेरे में दीप को लेकर चला था किन्तु लौटते समय दीपक बुझ जाने से उसे दृष्ट मार्ग नहीं दिखाई पडता है और वह रास्ते में भटक कर नष्ट हो जाता है :
दीव-प्पणठे व अणन्तमोहे ।। नेयाउयं दट्ठमदठुमेव ॥ उ० सू०, असंस्कृत, गा० ५.
इस गाथा मे बताया गया है कि मानव-जीवन ज्ञान का दीप है जिसे प्रत्येक प्राणी लेकर संसार में आता है। मनुष्य-जीवन में ही व्यक्ति अपने विवेक से धर्माचरण में प्रवृत्त होकर मोक्ष- मार्ग में प्रयाण कर मुक्ति-लाभ प्राप्त कर सकता है। किन्तु अपने लक्ष्य से भटक जाने पर वही व्यक्ति एक मात्र धन-लिप्सा से प्रमत्त हो जाता है। किन्तु धन से वह न तो इस लोक में और न पर लोक में अपना त्राण-संरक्षण कर सकता है ।
भगवद्गीता में संयमी और संसारी प्राणी का अन्तर बताते हुए श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा था :- या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।। गीता, अध्याय २, इलोक ३६
वही बात यहाँ ग्रंथकारने कही है :सुत्तेसु यावी पडिबुद्ध-जीवी। न वीससे पण्डिए आसु-पन्ने । असंस्कृत, गा० ६.
अर्थात् आशुप्रज्ञालनी साधक सोए हुए लोगों में भी प्रतिक्षण जागता रहता है । स्पष्टतः यहाँ सोने और जागने की क्रिया का अभिप्राय भिन्न है। शयन अर्थात् सांसारिक भोगों में आसक्त अज्ञानी प्राणी तथा जागरण अर्थात भोगों में अनासक्त होकर मोक्षप्राप्ति की साधना में सदैव सावधान रहने वाला । वस्तुतः धन, परिजन, भोग आदि के प्रलोभन व्यक्ति को सन्मार्ग से विचलित कर देते हैं । उनके व्यामोह में पड़कर मानव अपने हिताहित का विवेक छोड़ देते हैं ।
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