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. डा० विहारीलाल जैन भी साधक की अन्तरंग भाव-भूमि को पूर्णतः प्रकट कर देता है । उसके ब्रह्मचर्य एवं ज्ञानतप की पराकाष्ठा को प्रस्तुत करने के लिए यह रूपक उपयुक्त बन पड़ा है । धर्माराधन करने वाले का ही समय अच्छे कार्य में व्यतीत होता है। इसी बात को एक सुन्दर सूक्ति के रूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है :--
जा जा बच्चइ रयणी न सा पडिनियत्तई ।
धम्मं च कुणमाणस्स सफला जन्ति राइओ ॥" - जो जो रात्रि जा रही है, वह फिर कभी लौटकर नहीं आती है। धर्म करने वाले की रात्रियां ही सफल होती हैं । इसी प्रकार अनेक सुभाषित वाक्य इन्द्रनमि के संवाद, केशि-गौतम आदि के संवादों में प्रयुक्त हुए है । इसीलिए विंटरनित्स जैसे पाश्चात्य विद्वान् भी उत्तराध्ययन को श्रमण धार्मिक काव्य स्वीकार करते हैं।
उत्तराध्ययन सूत्र में अनेक सुन्दर आख्यान दिये गये हैं । इन आख्यानो में काव्य के माधुर्य, ओज और प्रसाद गुणों का पुट दिखाई देता है। आह्वलादकता और चित्र की दुति माधुर्य गुण की प्रमुख विशेषताएँ हैं। कोई भी कथन इस प्रकार उपस्थित किया जाय कि उसकी चर्वणा भी हो और चित्त पर अमिट प्रभाव भी पडे तो उसकी गधुरता या आहृलादकता की अनुभूति सहृदयों को अवश्य होती है । उसी प्रकार वित्त के विस्तार की हेतुभूत दीप्ति ओज-गुण, कहलाती है। किन्तु प्रसाद-मुग शब्दार्थ की प्रसन्नता में प्रायः सर्वत्र विद्यमान होता है । यही कथन उत्तराध्ययन सूत्र के संबंध में भी सत्य है कि इसकी प्रसाद -गुणात्मकता में कोई न्यूनता नहीं है । प्रसाद की छटा सर्वत्र दृष्टिगत होती है।" माधुर्य-गुणात्मक उक्तियाँ भी इस सूत्र में उपलब्ध होती हैं। जैसे उदाहरण के लिए निम्न गाथाएँ दृष्टव्य है। .... न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बम्भणो ।
न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण न तावसो ॥
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