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डा. बिहारीलाल जैन रिक कामभोगों को शल्य, विष और सर्प के उपमानों से उपमित किया है :
सल्लं कामा विसं कामा आसीविसोवमा । उ० सू० नमिग्रव्रज्या गा० ५३ .. इस मालोपमा अलंकार के प्रयोग से काम-भोगों की परिणति का भयावह एवं यथार्थ रूप उपस्थित कर दिया गया है । वस्तुतः भोंग कभी मुक्त नहीं होते, अपितु हम ही भोगों के बलि चढ़ जाते हैं । ___'भोगा न मुक्ता वयमेव भुक्ताः ।' अतः आत्मा का ब्रह्मके साथ साक्षात्कार से ही इन मिथ्या या असार सांसारिक भोगों से आत्यन्तिक निवृत्ति हो सकती है । आत्म-ज्ञान के इसी महत्त्व को बताते हुए मालोपमालंकार के द्वारा आत्मा की अनन्त शक्ति को निम्न गाथा में ध्वनित किया गया है ।
अप्पा नई वेयरणी अप्पा मे कूडसामली । अप्पा कामदुहा घेणू अप्पा मे नन्दणं वणं ॥
उ० सू०, महानियण्ठिज्ज, गा० ३६. (आत्मा ही वैतरणी है, कूटशाल्मली वृक्ष है, कामदुधाधेनु है और नन्दनवन है।)
किसी विषय को हृदयंगम बनाने के लिए प्रचलित दृष्टान्तों का प्रयोग किया जाता है यहाँ पर ऐसे अनेक दृष्टान्तों का प्रयोग हुआ है जिनसे विषय बोध-गम्य हो गया है। जैसे श्रमण-परंपरा में गुरू-शिष्य संबंध ओपचारिक मात्र नहीं होते है। वहाँ गुरु अपने शिष्य को बहुज्ञ बनाने का मरसक प्रयास करते हैं । किसी मेधावी शिष्य को पाकर आचार्य उसे शिक्षित करते हुए अत्यन्त प्रसन्नता की अनुभूति करते हैं । परन्तु कुछ मन्द-बुद्धि शिष्य उनकी शिक्षा को हृदयंगम न कर पाने के कारण खिन्न होते हैं। उनकी इस प्रीति एवं खीझ को स्पष्ट करने के लिए ग्रंथकारने अश्वशिक्षा का दृष्टान्त निम्न गाथा में प्रस्तुत किया है :
रमए पण्डिए. सासं हयं भ६ व वाहए । बालं सम्मई सासन्तो गलियस्सं व वाहए ।
उ० सू० विनयश्रुत, गा० ३७
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