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उत्तराध्ययनसूत्र में कान्यतत्त्व
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रस आदि काव्यतत्त्वों का सन्निवेश हुआ है वे अध्ययन धार्मिक काव्य के रूप में आस्वाद्य बन पड़े हैं।
काव्य का प्रधान तत्त्व अलकार है। यद्यपि ध्वनि अथवा रस को काव्यात्मा मानकर अंगीरूप में होने से ध्वनि-काव्य को उत्तम-काव्य कहा जाता है तथापि काव्य की पहचान अलंकारों से होती है। 'काव्य का बाह्म स्वरूप अलकारमय होता है । शब्द और अर्थ की चारुता अलंकारों के कारण ही उन्मिषित होती है। अल कारों का वासन्ती वैभव शब्दार्थ के उद्यान (काव्य) को महका देता है। उत्तराध्ययन-सूत्र में प्रयुक्त अलंकारों की छटा भी सहृदयों को मंत्रमुग्ध कर देती है । उपमा अलकार के प्रयोग से यहां न केवल औपम्य का निर्वाह किया गया है अपितु एक विस्तृत शब्दचित्र ही उपस्थित कर दिया गया है:___"दीवणटूठे व अणन्तमोहे नेयाउयं दद्रुमदठुमेव ॥"
अर्थात् अंधेरे में जिसका दीप बुझ गया हो उसको प्रकाश में देखा गया मार्ग भी दिखाई नहीं पड़ता है । जैसे कि मोह में पडकर प्रमत्त बना हुआ व्यक्ति विवेक नष्ट हो जाने से दृष्ट मोक्ष-मार्ग को भी नहीं देखता है । यहां मोह को अन्धकार, विवेक को प्रकाश तथा मुक्तिपथ को गन्तव्य मार्ग से उपमित कर कान्तासम्मित उपदेश की रमणीयता उपस्थित कर दी गयी है । किन्तु संस्कृत काव्यों की भांति इस सूत्र ग्रंथ का प्रधानरस शृंगार नहीं है । अतः वहाँ रसिकप्रियता का अन्वेषण करना निरर्थक है। यहां तो समस्त शृंगारों का अयमान होने के पश्चात् जीवन की जो रसधारा प्रवाहित होनी चाहिये उसका बटुप दश दिया गया है । इसीलिए कहा गया है कि संयाग और तप ही साधुजीवन में सर्वस्व है । संयम बाट रेत के कवल-पास की तरह स्वाद-रहित है और नपका आया तलवार की धार पर चलने जैसा दुबार है ।२
गार की रचना के बारे में शांकर अद्वैत वेदान्त में मिथ्या या माया शब्द का प्रयोग किया गया है । संसार की असारता का प्रतिपादन जैन-परम्परा में भी अनेक प्रकार से किया गया है। इसी सन्दर्भ में उ० सू० में सांसा
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