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उत्तराध्ययन तथा मनुस्मृति में | से, विषयों द्वारा खींची जाने वाली इनद्रियों को वश में करे । इन्द्रियों के नियंत्रण से और राग द्वेष के त्याग तथा प्राणियों की अहिंसा से संन्यासी मोक्ष पाता है । मनुस्मृति में व्याहृति और प्रणव सहित यथाविधि तीन प्राणायामों की व्यवस्था भी बतायी गयी है क्योंकि आग में तपाने से जैसे धातुओं का मैल जल जाता है वैसे ही प्राणवायु के निग्नह से इन्द्रियों के दोष दग्ध हो जाते हैं । साधक अहिंसा, इन्द्रियसंयम, वैदिक कों के अनुष्ठान और कठिन तपश्चर्या से ब्रह्मपद को प्राप्त होते हैं । जैन आगमों में भी लगभग इसी प्रकार के नियम का उल्लेख मिलता है । उत्तराध्ययन में आक्रोशपरीषह के अन्तर्गत कहा गया है कि :
अवकोसेज्जा परे भिक्खु, न तेसिं पडिसंजले । - सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू न संजले ॥१७ अर्थात् कोई पुरूष साधु की निन्दा करे तो साधु उसके ऊपर क्रोध न करें क्योंकि वह मुखों के समान हो जाता है । इसलिए अपने को कोसने वाले पर भी साधु कोप न करें । दूसरों की दारूण और कंटक के समान चुभने वाली अति कठोर भाषा को सुनकर भी साधु मौन ही रहे किन्तु उन कठोर शब्दों को बोलनेवालों पर वचन से तो क्या मन से भी द्वेष न करें।" उत्तराध्ययन में त्याग व चरित्र पर बार बार बल दिया गया है । उसके अनुसार बुद्धि को मन्द करने वाले और लुभाने वाले ऐसे स्पर्शो में साधु अपने मन को न लगावे । एवं क्रोध न करे, मान में न आवे, माया कपट का सेवन न करें और लोभ को भी । त्याग दे।" तभी आचार में रमता हुआ मोक्ष तक पहूँच सकेगा ।
इस प्रकार निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि मनुस्मृति और उत्तराध्ययन में वर्णित साधु-आचार यत्किचित् अन्तर होते हुए भी बहुत कुछ साम्य रखते हैं । आचार की यह कठोरता सम्भवतः साधना के उस स्तर पर इतनी अनुभूत नहीं होती होगी जितनी कि पाठक को। धैर्य और अहिंसा की आधार
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