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उत्तराध्ययन तथा मनुस्मृति में त्यागप्रधान साधुमार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को इन परीषहों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए। साधुचर्या में ये उक्त क्रम से ही उत्पन्न होते हैं । उत्तराध्ययन के द्वितीय अध्याय में इनका विवेचन प्राप्त होता है । इनके अतिरिक्त साधु के सामान्य क्रिया कलापों की भी नियम-व्यवस्था दी गयी है । भिक्षा की विधियाँ निश्चित की गयी है । साधु को चाहिए की गृहस्थ का दिया हुआ एषणीय शुद्ध आहार ही ग्रहण करें । यदि पहले घर में किसी अन्य भिक्षु ने प्रवेश किया हो तो साधु न तो उस भिक्षु के अति दूर न अति समीप में तथा न नेत्रों के सामने खडा हो और न उसका उल्लंघन कर घर में आवे । इसी प्रकार लगभग सभी आचारों के लिए कठोर नियमों की व्यवस्या वर्णित है । कवचयुक्त सुशिक्षित 'घोडे की तरह इच्छाओं का निरोध करने वाला मुनि मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। साधु-आचार में श्रद्धा, ज्ञान और चरित्र का विशेष ध्यान रखा गया है।
मनुस्मृति के षष्ठ अध्याय में साधु-आचार का विस्तृत विवरण मिलता है । अपने पर्व दायित्वों का पालन करने के लिए दण्ड और कमण्डलु साथ में लेकर मोक्षसिद्धि के लिए अकेले ही भ्रमण करने का विधान है । आचरण सम्बन्धी एक श्लोक प्रस्तुत है :
दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ।
सत्यपूतं वदेवाचं मनःपूतं समाचरेत् ॥ अर्थात् आंख से जमीन को देख कर पैर रखे, वस्त्र से छानकर जल पिये, सत्य वचन बोले और पवित्र मन से कार्य करे । कोई वाद-विवाद करे तो सहले. किसी का अपमान न करे । क्रोध से भरे हुए मनुष्य का जवाब क्रोधित होकर न दे. कोई निन्दा करे तो भद्र वचन ही कहे। सात द्वारों (पांच ज्ञानेन्द्रिय तथा तथा मन और बुद्धि) से ग्रहण किये जाने वाले विषयों की चर्चा न करे । भिक्षा एक ही बार मांगनी चाहिए । भिक्षा न मिलने पर विषाद न करे और मिलने पर हर्ष न करे । प्राणयात्रारक्षार्थ भिक्षान्न से जीवन निर्वाह करे । दण्ड और कमण्डल में भी आसक्ति न रखें । अल्पाहम् और एकान्त निवास इन दो उपायों
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