________________
उत्तराध्ययन तथा मनुस्मृति में वर्णित
साधु-आचार
__डॉ. मिथिलेश कुमारी मिश्र, पटना ब्राह्मण आचार का प्रस्थान बिन्दु वर्णाश्रम धर्म है जो स्मृतियों में निरूपित है और श्रमण आचार का प्रस्थान बिन्दु वैराग्य है जो उसके आगम ग्रन्थों में निरूपित हैं । स्मृतियों में मनुस्मृति तथा जैन आगम ग्रन्थों में उत्तराध्ययन में आचार-व्यवस्था का पूर्ण विवेचन उपलब्ध है । अतः प्रस्तुत लेख इन्हीं सीमाओं में है । मनुस्मृति के अनुसार संन्यासोन्मुख प्राणी अपने सभी उत्तरदायित्वों से निवृत्त होने पर ही संन्यास में प्रविष्ट हो सकता है । अर्थात् वर्णाश्रम व्यवस्था की पूर्णता के साथ ही संन्यासी होना चाहिए । क्रमशः विनयपूर्वक ब्रह्मचर्य आश्रम में ज्ञानार्जन करना चाहिए । तत्पश्चात् धर्मपूर्वक निष्ठा
और कर्मठता से धनार्जन करके गृहस्थाश्रम के नियमों का पालन करना चाहिए सन्तानोत्पत्ति करके पितृऋण से मुक्त हो वानप्रस्थ में यज्ञादि करनेके बाद व्यक्ति संन्यास का अधिकारी होता है । ऋणशोधन किये बिना मोक्षार्थी नरकगामी होता है, दृष्टव्य है :
ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत १।
अनपाकृत्य मोक्षं तु सेवमानो व्रजत्यधः ॥ इस प्रकार आश्रम की अनिवार्यता स्वयं सिद्ध है । मनुस्मृतिकार ब्राह्मणों या द्विजों को ही संन्यास की आज्ञा देता है शेष वर्णो क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्तव्य-पालन में ही उनके मोक्ष की सिद्धि या पूर्णता मान लेता है । क्षत्रियों के लिए वानप्रस्थ का विधान हैं-वार्धक्य में मुनिवृत्ति को कालिदास द्वारा रघुवंशियों का जीवनादर्श माना गया है किन्तु इनके लिए रणक्षेत्र में प्राणत्याग करना भी संन्यास-साधन के समतुल्य है । मनस्मृति का विधान है कि क्षत्रिय चाहे तो तृतीय आश्रम में जाये या धर्मयुद्ध में प्राणों का परित्याग करे । वैइयों के लिए वानप्रस्थ और संन्यास की अनिवायता नहीं वतायी गई है और शूद्रों के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org