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बाहितपापो तिं ब्रह्मणो
समचरिया समणो ति बुच्चति ॥
धम्मपद - ३८८-६
( पापो को बहिर्गत करने से ब्राह्मण कहलाता है । समचर्या द्वारा श्रमण (समण) कहलाता है | )
प्रज्ञा ठाकर
धम्मपद के ' बह्मणवग्गो' की अनेक गाथाओं तथा सुत्तनिपात के 'बसेट्ठसुत' ( वसिष्ठसूत्र ) की २७ से ५४ तक की गाथाओं में लगभग शब्दश: समानता मिलती है ।
महाभारत और उ० सू० की तरह धम्मपद की गाथाओं में भी स्थान स्थान पर ' तमहं बूमि ब्राह्मणं' जैसी पंक्तियाँ हैं ।
प्राकृत के ' समत्व ' से ' समण ' और पालिभाषा में समचर्या से 'समण या श्रमण हुआ। वैसे ही वैदिक अनुगमों में ब्रह्म के साथ समत्व की कल्पना करके ब्राह्मण शब्द आया ।
प्रस्तुत अध्ययन से यह स्पष्ट होता हैं कि उ० सू० तथा धम्मपद के. विषयवस्तु का स्रोत एक ही है। वैदिक साहित्य में भी इन्हीं गुण - विशेषों का विवरण प्राप्त होता है ।
भारतीय संस्कृति की यही विशेषता है । मोक्षप्राप्ति के मार्ग, आचार, विचार, उपासनापद्धतियाँ तो यहाँ अनेक पनपी है । किन्तु सामंजस्य के सूत्र, विचारों का आदान-प्रदान भी चलता रहा। जैन, बौद्ध व वेद-उपनिषद का इस समान तत्त्व का बोध आज के संक्रान्ति काल में राष्ट्र की एकात्मकता और अखण्डितता को दृढमूल बनाने में उपकारक हो सकता है । अतः विभिन्नताओं की खोज के बजाय विभिन्न पंथ - सम्प्रदायों में समाविष्ट एकत्व के सूत्रों की खोज आवश्यक हो गयी है । ऐसा सादर सूचन करने का लोभ संवरण नहीं कर सकती ।
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