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उत्तराध्ययनसूत्र तथा घम्मपद [ कमलपत्र पर पड़े जल की तरह और तकली (सूत कांतने की) की आर की नोक पर रखे सरसों के कण की तरह जो 'काम' से लिप्त नहीं होता उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ !]
जहित्ता पुव्वस जोग नाइस गे य बन्धवे ।
जो न सज्जइ एएहि त वयं बूम माहणं । उ.सू. २५-२९ (पूर्व सम्बन्ध, सम्बन्धी वर्ग तथा बान्धवों का त्याग कर के जो भोगों में आसक्त नहीं होता उसे ब्राह्मण कहते हैं ।)
सब्बसंयोजन छेत्त्वा यो वे न परितस्सति ।
___ सङ्गातिग विसंयुत्त तमहं बूमि ब्राह्मण ॥ धम्मपद-३९७-१५ [सर्व संयोजनों को (सम्बन्धों को) छेद कर भी त्रस्त नहीं होता, जो आसक्ति से परे है, अविषक्त (अनासक्त) है उसे मैं ब्राह्मण कहता हूँ ।)
न वि मुण्डिएण समणो न ओंकारेण बम्भणो ।
न मुणी रण्णवासेणं कुसचीरेण तावसो ॥ उ.सू. २५-३१ [मुण्डन करवाने से श्रमण नहीं होता, ॐकार (रटण) से ब्राह्मण नहीं होता, अरण्यवास करने से कोई मुनि नहीं होता तथा कुश-वस्त्र (वल्कल) धारण करने से तापस नहीं होता । ]
न मुण्डकेन समणो अब्बतो अलिक भण।
इच्छालोभसमापन्नो समणो कि भविस्सति ॥ धम्मपद-२६४-९ (भुण्डी होने से श्रमण नहीं हुआ जाता. नियमों का पालन न करनेवाला, असत्यवादी, इच्छाओं से तथा लोभ से आसक्त किस प्रकार श्रमण होगा ?)
समयाए समणो होइ बम्भचेरेण बम्भणो । .... नाणेण च मुणी होइ तवेण होइ तावसो ॥ -उ.सू. २५-३२ (समता से श्रमण, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि तथा तप से तापस होते है)।
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