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उत्तराध्ययनसूत्र तथा धम्मपद
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मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेण तु भुञ्जए ।
न सो सक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसिं ॥ [कोई मूर्ख प्रति मास केवल कुशाग्र भाग जितना ही भोजन करे तब भी वह सुआख्यात धर्म की सोलही कला तक नहीं पहूँचता ।] मासे मासे कुसग्गेन बालो भुजेथ भोजनं ।
न सो सइखतधम्मानं कलं अग्घति सोळसिं ॥ --धम्मपद-७०-११ [मूर्ख यदि प्रतिमास दर्भ की नोक जितना ही भोजन करता रहे तब भी धर्म को जाननेवाले लोगों की सोलहवीं कला के लायक भी वह नहीं होता।] ___पडन्ति नरए घोरे जे नरा पावकारिणो ।
दिव्वं च गई गच्छन्ति चरित्ता धम्ममारियं ॥ -उ.सू. १८/२५ (जो पुरुष पापाचरण करता है वह घोर नरक का भोगी बनता हैं, आर्यधर्म का आचरण कर के दिव्य गति को प्राप्त करता है।)
कासावकण्ठा वहवो पापधम्मा असंयता ।
पापा पापेहि कम्मेहि निरयं ते उपपजरे ।। -धम्मपद-३०७-२ ( कषाय वस्त्र धारण करनेवाले, पापधर्मी, असंयमी असंख्य पापी पुरुष पापकर्मो से नरक में वास करते हैं)
तसपाणे बियाणेत्ता संगहेण य थावरे ।
जो न हिंसइ तिविहेणं तं वयं बूम माहणं ।। -उ.सू. २५-२३ ( जो त्रस अर्थात् जंगम और स्थावर प्राणियों को ठीक से समजकर तीनों प्रकार (मन, वचन, काया) से उनकी हिंसा नहीं करता उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । )
यस्स कायेन वाचाय मनसा नत्थि दुक्कतं । संवुतं तीहि ठानेहि तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं ॥ धम्मपद-३९१-९
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