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जवूद्वीप प्रज्ञप्ति और भागवत में ऋषभचरित संख्या १४ है, जबकि जं. प्र. के अनुसार वह संख्या १५ की है । भागवतअनुसार नाभि मनु नहीं हैं, परंतु मनु के वंशज हैं। . ____जं. प्र. अनुसार ऋषभदेव १५ वाँ कुलकर और २४ तीर्थ करों में प्रथम तीर्थंकर हैं। जबकि भागवतअनुसार वे २२ (२४) अवतारों में ८ वाँ अवतार हैं ।" इसका अर्थ यह हुआ कि दोनों परंपराने समाज में उनके अत्यंत सुप्रसिद्ध व्यक्तित्व का स्वीकार किया है। __भागवत में मात्र ऋषभ नाम है, जबकि जैन परंपरा में दो नाम मिलते हैं -जं. प्र. में ऋषभ नान है और महापुराण में वृषभ नाम है । ऋषभ नाम रखने के पीछे क्या दृष्टि थी, इसकी स्पष्टता भागवत में है -- तेज, बल, शोभा, यश, पराक्रम और शौर्य में श्रेष्ठ होने से ऋषभ नाम रखा गया। उनके हृदय में धर्म था और अधर्म को दूर रखा था, अत: ऋषभ नाम से वे बुलाये गए। इस तरह ऋषभ शब्द श्रेष्ठता और धर्म का वाचक है। ऐसा अर्थघटन ज. प्र. में नहीं है । ये बातें ज. प्र. की प्राचीनता की सूचक है । महापुराण में वृषभ शब्द के चार अर्थघटन है
(१) वे जगत में ज्येष्ठ है । (वृषभोऽयं जगज्ज्येष्ठो 1) (२) वृष = धर्म, तीर्थ कर धर्म से शोभान्वित दिखते हैं। ( वृषो हि
भगवान् धर्मः, तेन यद्भाति तीर्थकृत् ।) (३) वे जगत में धर्मामृतरूप हितकी वृष्टि करते हैं । (वर्षिष्यति जगद्वितम् ।)
और (४) मरुदेवी ने स्वप्न में वृषभ (बैल) देखा था अतः उनका नाम वृषभ रखा गया ।१४ इन चार अर्थघटनों में से प्रथम के दो अर्थधटन भागवत के अर्थघटन से साम्य रखते हैं । अमरकोश मोनियर विलियम्स और आप्टे के शब्दकोश में ऋषम शब्द धर्मवाचक नहीं है, फिर भी भागवत में उसका सम्बन्ध धर्म से बताया गया है। इसके लिए दो कारणों का अनुमान हो सकता है -
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