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जिनेन्द्रकुमार जैन होकर मृत्यु को प्राप्त करता है वह आराधक होता है, किन्तु जो गुरु के पास भावशल्य को बिलकुल नहीं छोड़ता वह न तो समृद्धिशाली होता है और न ही आराधक होता हैं ।" चारों कषायों का त्याग, इन्द्रियों का दमन एवं गौरव को नष्ट करके राग-द्वेष से रहित होकर आराधक अपनी आराधना-शुद्धि करता है। आचार्यो ने इन दोनों ग्रन्थों में कहा है कि तीन गारव, एवं तीन शल्यों से रहित होकर, रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ) का आचरण करनेवाला समस्त दुःखों का क्षय करने वाला होता है ।१८
भगवती आराधना एवं प्रकीर्णको के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी आराधना का वर्णन मिलता है । आचारांगसूत्र में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप एवं वीर्य ये आचार के ५ भेद बतलाते हुए साधक को इनकी आराधना करने का निर्देश दिया गया है । इसी प्रकार सूत्रकृतांग में भी सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्र व तप इन चारों का साधक को समाधि के लिए ( मरणकाल में ) आचरण करने का आदेश दिया गया है । समवायांग' नामक अंग आगम में ३ प्रकार की विराधना का वर्णन किया गया है । भगवती स्त्र में कहा गया है कि ज्ञान और शील दोनों की संगति ही श्रेयस् की सर्वांगीण आराधना है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना ही श्रेयस्कर है । उत्तराध्ययन एवं दशवैकालिक नामक मूल आगम साहित्य में भी आराधना के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है । उत्तराध्ययन" में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप को मोक्ष का साधन बताते हुए इनका श्रद्धान (आराधना) करने को कहा गया हैं । दशकालिक २ सूत्र में भी भिक्षु के लक्षण बताते हुए कहा गया हैं कि-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप की आराधना द्वारा पुराने की को प्रकम्पित (क्षय ) करके जो मन, वचन और काय से सुसंवृत है वह भिक्षु है। ___ शौरसेनी आगम साहित्य के प्रसिद्ध आचार्य वटूटकेर द्वारा रचित 'मूलाचार' नामक ग्रन्थ में आराधना के मेद व स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। मुलाचार के वृहद्प्रत्याख्यान संस्तव अधिकार में कहा गया है कि श्रमण को पापों से
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