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जिनेन्द्रकुमार जैन
__143 अनगारधर्मामृत में सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रा इन तीन आराधनाओं का ही वर्णन मिलता है। इसी प्रकार भगवतीसूत्र (८/१०) में सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र के भेद से आराधना के तीन भेद किए गए हैं। इन तीनों आराधनाओं के उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य के भेद से तीन-तीन भेद भी किए गये हैं । भगवती आराधना एवं प्रकीर्णकों में भी इन चारों आराधनाओं के उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य के भेद से तीन-तीन भेद किए गये हैं ।३२ जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप का उत्कृष्ट रूप में आराधना करता है वह उसी भव से मोक्ष प्राध्त कर लेता हैं । तथा जो इन चारों आराधनाओं की मध्यम – आराधना करता है वह कर्मरूपी धूलि से छूटकर तीसरे भव में मोक्ष प्राप्त करता है। जधन्य रूपसे आराधना करके जीव सात आठ भवोंकी पूर्ति पर मोक्ष प्राप्त करता है। मरणसमाधि प्रकीर्णक में मध्यभ आराधक को चोथे भव में मोक्ष प्राप्ति का निर्देश दिया गया है।४।। चारों आराधनाओं का स्वरूप :
श्री अपराजितसूरि ने अपनी विजयोदयाटीका में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है कि तत्त्वार्थ-श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं । स्व और पर के निर्णय को सम्यग्ज्ञान कहते है । पाप का बन्ध कराने वाली क्रियाओं के त्याग को चारित्र एवं इन्द्रियों तथा मन के नियमन को तप कहते हैं ।" मनुष्य ज्ञान से जीवादि पदार्थो को जानता है, दर्शन से उनका श्रद्धान करता है, चारित्र से (कर्मास्रब का ) निरोध करता है और तप से क्षय करता है।
सभ्यग्दर्शन के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है कि तत्वों के अर्थ को सम ना और उनके श्रद्धान को अथवा उनमें विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं 3 जो उपदिष्ट अर्थात् जिनागम में श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि है । कि तु नहीं जानते हुए गुरु के नियोग से असत्य अर्थ का भी श्रद्धान होता है । जो वीर वचनों (जिनागम) का श्रद्धान करते हुए सम्यक्त्व
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