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भगबती आराधना एब' प्रकीर्णकों में आराधना का स्वरूप मुक्त होकर जीवन के अन्तिम क्षणों में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप इन चार आराधनाओं में स्थित रहकर क्षुधादि परीषहों पर विजय प्राप्त कर निष्कषाय रहने का आदेश दिया गया है ।२७ सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने के बाद जीवादि पदार्थो के श्रद्धान को आराधना कहा है। जैनेन्द्र सिद्धांत कोश में आराधना के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप इन चारों का यथायोग्य रीति से उद्योतन करना, उनमें परिणति करना, इनको दृढतापूर्वक धारण करना, उनके मंद पड़ जाने पर पुन:पुन: जागृत करना और उनका आमरण पालन करना, सो (निश्चय ) आराधना है ।२४ द्रव्यसंग्रह में भी इन चारों आराधनाओं-सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तपका निवास स्थान आत्मा को माना गया है अर्थात् इन चारों की आराधना करना ही आत्मा में निवास करना है। इसी लिए आत्मा को इन चारों आराधनाओं का शरणभूत बतलाया गया है। आराधना के भेद-प्रभेद :
आराधना के स्वरूप के साथ साथ उसके भेद-प्रभेद पर भी आचार्यो ने प्रकाश डाला है। भगवती आराधना में सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप के भेद से आराधना के चार प्रकार बतलाये गये हैं । तथा संक्षेप में आराधना के सम्यक्त्व (दर्शन) आराधना एव चारित्र आराधना ये दो भेद भी किए गए है।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप इन चारों आराधनाओं को सम्यग्दर्शन व चारित्र इन दो आराधनाओं में समाहित कर दिया है । क्योंकि सम्यक् दर्शन की आराधना से ज्ञान की, एवं चारित्र की आराधना से तप की आराधना नियम से होती है किन्तु ज्ञान की आराधना करने पर दर्शन की, एवं तपकी आराधना से चारित्रा की आराधना भजनीय है (होती भी है, नहीं भी होती)" । प्रकीर्णकों में आराधना के सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र ये तीन भेद बतलाये गये हैं ।२० तथा सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र व तप के भेद से आराधना चार प्रकार की भी कही गई है । ° समन्तभद्रकृत, रत्नकरण्ड-श्रावकाचार एवं पं. आशाघरकृत
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