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प्रा. डा. हरनारायण उ. पण्ड्या
133 समयसंबंधित केशलोच अनिवार्य नहीं था । भागवत और महापुराण दोनों में उल्लेख है कि यद्यपि ऋषभदेव मलीन रहते थे, फिर भी उनके शरीर से सुगन्ध नीकलती थी।" जो यौगिक ऋद्धि का निर्देश करती है।
भागवत में दीक्षाप्रसंग का वर्णन नहीं है, जब कि जं. प्र. में विस्तृत वर्णन मिलता है, जिसमें तिथि, नक्षत्र और समय आदि का सूक्ष्म वर्णन है।२९ भागवत में शिष्यपरिवार का विस्तृत वर्णन नहीं है ।जब कि ज. प्र. में विशाल शिष्य परिवार का विस्तृत वर्णन है।३° महापुराण के अनुसार उन्होंने काशी, अवन्ती, कुरू, विदर्भ आदि देशों में विहार किया था किन्तु वहाँ स्वागत का उल्लेख है, अपमान का उल्लेख नहीं है, जब कि भागवत के अनुसार परिभ्रमण काल में लोगों ने उनका बहुत अपमान किया था जैसे कि उन पर मलमूत्र फैंके थे आदि ।३१
दोनों परंपराएं उनके मृत्यु का भिन्न भिन्न वर्णन करती हैं – भागवत के अनुसार स्वशरीर का त्याग करने के लिए वे कर्णाटक के कोंक, वैक कुटक प्रदेश में गए, वहाँ दावानल में उनका शरीर जल गया। जब कि ज. प्र. में वे पद्मासन में मुक्त हुए। इससे अनुमान कर सकते हैं कि जैन परंपरा के अनुसार उन्होंने योग द्वारा शरीरत्याग किया था ।
भागवत में उनके मृत्यु के बाद की घटना का कोई वर्णन नहीं है, जब कि जं.प्र. में अग्निसंस्कार आदि का विस्तृत वर्णन है । जैसे कि ऋषभदेव के निर्वाण से इन्द्र का आसन डोल ऊठता है । यह इन्द्र अन्य इन्द्रों द्वारा तीन चिता बनवा कर, तीन चैत्यों को रचवा कर, उनके अस्थि रत्नपेटिकाओं में रखकर, पूजा करता है।33 |
दोनों परंपराएँ स्वीकार करती है कि अपनी परंपरा से अलग अन्य परंपरा पाखंड है-जैसे कि भागवत में कहा गया है कि ऋषभचरित सुनकर कोंक, बैंक
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