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प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज अध्ययन की २४ वीं गाथा जो न केवल इसी गाथा के समरूप है, अपितु भाषा की दृष्टि से भी उसकी अपेक्षा प्राचीन लगती है- प्रक्षिप्त नहीं कही जा सकती। यदि उत्तराध्ययन के कुछ अध्ययन जिनभाषित एवं कुछ प्रत्येकबुद्धों के सम्वादरूप हैं तो हमें यह देखना होगा कि वे किस अंग ग्रन्थ के भाग हो सकते हैं। प्रश्नव्याकरण की प्राचीन विषयवस्तु का निदेश करते हुए स्थानांग, समवायांग
और नन्दीसूत्र में उसके अध्यायों को महावीरभाषित एवं प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है । इससे यही सिद्ध होता है कि उत्तराध्ययन के अनेक अध्याय पूर्व में प्रश्नव्याकरण के अंश रहे हैं । उत्तराध्ययन के अध्यायों के वक्ता के रूप में देखें तो स्पष्टरूप से उनमें नमिपञ्चज्जा, कापिलीय, संजयीया आदि जैसे कई अध्ययन प्रत्येकबुद्धों के सम्बादरूप मिलते हैं। जबकि विनय सुत्त, परिणहविभक्ति, संस्कृत, अकाममरणीय, क्षुल्लक-निन्नीय, दुमपत्रक, बहुश्रुतपूजा जैसे कुछ अध्याय महावीरभाषित हैं और केसी - गौतमीय, गद्दमीय आदि कुछ अध्याय आचार्यभाषित कहे जा सकते हैं । अतः प्रश्नव्याकरण के प्राचीन संस्कार की विषथ-सामग्री से इन उत्तराध्ययन के अनेक अध्यायों का निर्माण हुआ है ।
यद्यपि समवायांग एवं नन्दीसूत्र में उत्तराध्ययन का नाम आया है, किन्तु स्थानांग में कहीं भी उत्तराध्ययन का नामोल्लेख नहीं है । जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके है । स्थानांग ही ऐसा प्रथम ग्रन्थ है जो जैन आगम साहित्य के प्राचीनतम स्वरूप की सूचना देता है । मुझे ऐसा लगता है कि स्थानांगमें प्रस्तत जैन साहित्य-विवरण के पूर्व तक उत्तराध्ययन एक स्वतन्त्र प्रन्थ के रूप में अस्तित्व में नहीं आया था, अपितु वह प्रश्नव्याकरण के एक भाग के रूप में था। ... पुनः उत्तराध्ययन का महावीरभाषित होना उसे प्रश्नव्याकरण के ही अधीन मानने से ही सिद्ध हो सकता है। उत्तराध्ययन की विषयवस्तु का निर्देश करते हुए यह भी कहा गया है कि ३६ अपृष्ठ का व्याख्यान करने के पश्चात् ३७ वे प्रधान नामक अध्ययन का वर्णन करते हुए भगवान परिनिर्वाण को
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