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डा० सागरमल जैन
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प्राप्त हुए । प्रश्नव्याकरण के विषयवस्तु की चर्चा करते हुए उसमें पृष्ठ, अपृष्ठ
और पृष्ठापृष्ठ प्रश्नों का विवेचन होना बताया गया है । इससे भी यह सिद्ध होता है कि प्रश्नव्याकरण और उत्तराध्ययन की समरूपता है और उत्तराध्ययन में अपृष्ठ प्रश्नों का व्याकरण है।
हम इसे यह भी सुस्पष्ट रूप से बता चुके हैं कि पूर्व में ऋषिभाषित ही प्रश्नाव्याकरण का एक भाग था । ऋषिभाषित को परवर्ती आचार्यों ने प्रत्येकबुद्धभाषित कहा है। उत्तराध्ययन के भी कुछ अध्ययनों को प्रत्येकबुद्धभाषित कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराध्ययन एवं ऋषिबाषित एक दूसरे से निकटरूप से सम्बन्धित थे और किसी एक ही ग्र-थ के भाग थे । हरिभद्ग (८ वीं शती) आवश्यकनियुक्ति की वृत्ति (८/५) में ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन को एक मानते हैं । तेरहवीं शत्ताब्दी तक भी जैन आचार्यों में ऐसी घारणा चली आ रही थी कि ऋषिभाषित का समावेश उत्तराध्ययन में हो जाता है । जिनप्रभसूरिकी विधिमार्गप्रपा में, जो १४ वीं शताब्दी की एक रचना हैस्पष्ट रूप से उल्लेख है कि कुछ आचार्यों के मत में ऋषिभाषित का अन्तर्माव उत्तराध्ययन में हो जाता है। यदि हम उत्तराध्ययन और ऋषिभाषित को समग्र रूप में एक ग्रन्थ माने तो ऐसा लगता है कि उस ग्रन्थ का पूर्ववर्ती भाग ऋषिभाषित और उत्तराध्ययन कहा जाता था ।
यह तो हुइ प्रश्नव्याकरण के प्राचीनतम प्रथम संस्करण की बात । अब यह विचार करना है कि प्रश्नव्याकरण के निमित्तशास्त्रप्रधान दूसरे संस्करणकी क्या स्थिति हो सकती है- क्या वह भी किसी रूप में सुरक्षित है ?
जहां तक निमित्तशास्त्र से सम्बन्धित प्रश्नव्याकरण के दूसरे संस्करण के अस्तित्व के होने का प्रश्न है- मेरी दृष्टि में वह भी पूर्णतया विलुप्त नहीं हुआ है, अपितु मात्र हुआ यह है कि उसे प्रश्नव्याकरण से पृथक कर उसके स्थान पर आश्रवद्वार और संवरद्वार नामक नई विषयवस्तु डाल दी गई है । श्री अगरचन्दजी नाहटा ने जिनवाणी, दिसम्बर १९८० में प्रकाशित अपने लेख में प्रश्न
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