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प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु कीं खोज
व्याकरण के नाम से मिलनेवाली सभी रचनाएं हमारे समक्ष उपस्थित हों और इनका प्रमाणिक रूप से अध्ययन किया जाये ।
विषय सामग्री में परिवर्तन क्यों ?
यद्यपि यहां यह प्रश्न स्वाभाविकरूप से उठता है कि प्रथम ऋषिभाषित, आचार्यभाषित, महावीरभाषित आदि भाग को हटाकर उसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण रखना और फिर निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण हटाकर आश्रवद्वार और संवरद्वार सम्बन्धी विवरण रखना - यह सब क्यों हुआ ? सर्वप्रथम ऋषिभाषित आदि भाग क्यों हटाया गया ? मेरी दृष्टि में इसका कारण यह है कि ऋषिभाषित में अधिकांशतः अजैन परम्परा के ऋषियों के उपदेश एवं विचार संकलित थेइसके पठन पाठन से एक उदार दृष्टिकोण का विकास तो होता था किन्तु जैनधर्म संघ के प्रति अटूट श्रद्धा खण्डित होती थी तथा परिणाम स्वरूप संधीय व्यवस्था के लिए अपेक्षित धार्मिक कट्टरता और आस्था टिक नहीं पाती थी । इससे धर्मसंघ को खतरा था । पुनः यह युग चमत्कारों द्वारा लोगों को अपने धर्मसंघ के प्रति आकर्षित करने और उनकी धार्मिक श्रद्धा को दृढ करने क था - चूंकि तत्कालीन जैन परम्परा के साहित्य में इसका अभाव था, अतः उसे जोडना जरूरी था । समवायांग में प्रश्नव्याकरण सम्बन्धी जो विवरण उपलब्ध है उससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती है उसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि लोगों को जिनप्रवचन में स्थित करने के लिए, उनकी मति को विस्मित करने के लिए सर्वज्ञ के वचनों में विश्वास उत्पन्न करने के लिए इसमें महाप्रश्नविद्या, मनः प्रश्नविद्या, देवप्रयाग आदि का उल्लेख किया गया है । यद्यपि यह आश्चर्यजनक है कि एक ओर निमित्तशास्त्र को पापसूत्र कहा गया किन्तु संघहित के लिए दूसरी ओर उसे अंग आगम में सम्मिलित कर लिया गया क्योंकि जब तक उसे अंग साहित्य का भाग बनाकर जिनप्रणीत नहीं कहा जाता तब तक लोगों
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