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प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज कि अभयदेव के पूर्व भी प्रश्नव्याकरण के वर्तमान संस्करण पर प्राकृत भाषा में ही कोई व्याख्या लिखी गई थी जिसमें दो श्रुतस्कन्ध की मान्यता को पुष्ट किया गया गया था । उसका काल अभयदेव से २-३ शताब्दी पूर्व अर्थात् ईसा की ८ वीं शताब्दी के लगभग अवश्य रहा होगा । पुनः आचार्य जिनदासगणी महत्तर ने नन्दीसूत्र पर शक सम्वत् ५९८ अर्थात् ईस्वी सन् ६७६ ई० में अपनी चूर्णी समाप्त की थी। उस चूर्णी में उन्होंने प्रश्नव्याकरण में पंचसंवरादि की व्याख्या होने का स्पष्ट निर्देश किया है । इससे भी यह सिद्ध हो जाता है कि ईस्वी सन् ६७६ के पूर्व प्रश्नव्याकरण का पंच संवरद्वारों से युक्त संस्करण प्रसार में आ गया था, अर्थात् आगमों के लेखनकाल के पश्चाद् लगभग सौ वर्ष की अवधि में वर्तमान प्रश्नव्याकरण अस्तित्व में अवश्य आ गया था । प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण की प्रथम गाथा, जिसमें 'वोच्छामि' कहकर ग्रन्थ के कथन का निश्चय सूचित किया गया है, की रचना शेष सभी अंग आगमों के प्रारम्भिक कथन से बिलकुल भिन्न है । यह ५ वीं ६ ठी शताब्दी में रचित ग्रन्थों की प्रथम प्राक्कथन गाथा के समान ही है । अतः प्रस्तुत प्रश्नव्याकरण रचनाकाल ईसा की छठी शताब्दी माना जा सकता है ।
- इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वह प्रश्नव्याकरण जिसमें उसकी विषयवस्तु ऋषिभाषित की विषयवस्तु के समरूप थी, प्राचीनतम संस्करण है जो लगभग ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी की रचना होगी । फिर ईसा की दूसरी-तीसरी शताद्वी में उसमें निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण जुड़े जिनकी सूचना उसके स्थानांग के विवरण से मिलती है। इसके पश्चात् ईसा की चौथी शताद्वदी में ऋषिभाषित आदि भाग अलग किये गये और उसे निमित्तशास्त्र का ग्रन्थ बना दिया, समवायांग का विवरण इसका साक्षी है । इस काल में प्रश्नऱ्याकरण के नाम से वाचनाभेद से अनेक ग्रन्थ अस्तित्व मे थे ऐसी भी सूचना हमें आगम साहित्य से मिल जाती है । लगभग ईसा की ६ ठी शताद्वी के उत्तरार्ध में इन प्रन्यों के स्थान यर बर्तमान
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