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प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु की खोज
और अण्डों के रूपकों द्वारा क्रमशः यह समझाया गया है कि जो इन्द्रिय संयम नहीं करता है वह दुःख को प्राप्त होता है और जो साधना में अस्थिर-चित्त रहता है वह फल को प्राप्त नहीं करता है । इसी प्रकार ‘राखा' में स्थानांग
और समवायांग के समान संस्था के आधार पर वर्णित सामग्री हो । यद्यपि यह भी संभव है कि संखा नामक अध्ययन का सम्बन्ध सांख्य दर्शन से रहा हो । क्योंकि अन्य परम्पराओं के विचारों को प्रस्तुत करने की उदारता इस ग्रन्थ में थी। साथ ही प्राचीनकाल में सांख्य श्रमणधारा का ही दर्शन था और जैन दर्शन से उसकी निकटता थी। ऐसा प्रतीत होता है कि अद्दागपसिणाई, बाहुपसिणाई आदि अध्यायों का सम्बन्ध भी निमित्तशास्त्र से न होकर इन नामवाले व्यक्तियों की तात्त्विक परिचर्चा से रहा हो जो क्रमशः आईक और बाहुक नामक ऋषियों की तत्त्वचर्चा से सम्बन्धित रहे होंगे । अदागपसिणाई की टीकाकारों ने 'आदर्शप्रश्न ऐसी जो संस्कृत छाया की है वह भी उचित नहीं है। उसकी संस्कृतछाया 'आद्र कप्रश्न' एसी होना चाहिए । आर्ट्सक से हुए प्रश्नोत्तरों की चर्चा सूत्रकृतांग में मिलती है साथ ही वर्तमान ऋषिभाषित में भी 'अदाएण' (आदक) और बाह (बाहुक) नामक अध्ययन उपलब्ध है। हो सकता है कि कोमल और खोम -क्षोम भी कोई ऋषि रहे हैं । सोम का उल्लेख भी ऋषिभाषित में है । फिर भी यदि हम यह मानने को उत्सुक ही हों कि ये अध्ययन निमित्त शास्त्र से सम्बन्धित थे तो हमें यह मानना होगा कि यह सामग्री उसमें बाद में जुड़ी है, प्रारम्भ में उसका अंग नहीं थी। क्योंकि प्राचीनकाल में निमित्त शास्त्र का अध्ययन जैनभिक्षु के लिए वर्जित था और इसे पापश्रुत माना जाता था ।
स्थानांग और समवायांग दोनों में प्रश्नव्याकरण सम्बन्धी जो विवरण हैं, वे भी एक काल के नहीं हैं । समवायांग का विवरण परवती है, क्योंकि उस विवरण में मूल तथ्य सुरक्षित रहते हुए भी निमित्तशास्त्र सम्बन्धी विवरण काफी
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