________________
डा० सागरमल जैन
71
विस्मित करनेवाले, अतिशयमय कालज्ञ एवं शमदम से युक्त उत्तम तीर्थंकरों के प्रवचन में स्थित करनेवाले, दुराभिगम, दुरावगाह, सभी सर्वज्ञोंके द्वारा सम्मत सभी अज्ञजनों को बोध करानेवाले प्रत्यक्ष प्रतीतिकारक, विविधगुणों से और महानअर्थों से युक्त जिनवरप्रणीत प्रश्न (वचन) कहे गये हैं ।
प्रश्न व्याकरण अग की सीमित वाचनायें हैं, संख्यात अनुयोगद्वार हैं, संख्यात प्रतिपत्तियां हैं, संख्यात वेढ हैं, संख्यात श्लोक है, संख्थात नियुक्तिय हैं और संख्यात संग्रहणियां हैं ।
प्रश्नव्याकरण अंगरूप से दसवां अंग है, इसमें एक श्रुत स्कन्ध है, पैंतालीस उद्देशन काल हैं, पैंतालीस समुद्देशन काल हैं पद-गणना की अपेक्षा संख्यात लाख पद कहे गये हैं। इसमें संख्यात अक्षर हैं, अनन्त गम हैं, अनन्त पर्याय है, परीत त्रस हैं, अनन्त स्थावर हैं, इसमें शाश्वत कृत, निबद्ध, निकाचित जिन-प्रज्ञप्त भाव कहे जाते हैं, प्रज्ञापित किये जाते हैं प्ररूपित किये जाते हैं, निदर्शित किये जाते हैं और उपदर्शित किये जाते हैं । इस अंग के द्वारा
आत्मा ज्ञाता होता है, विज्ञाता होता है । इस प्रकार चरण और करण की प्ररूपणा के द्वारा वस्तु-स्वरूप का कथन, प्रज्ञापन, निदर्शन और उपदर्शन किया जाता हैं ।
(स) नन्दीसूत्र - नन्दीसूत्र में प्रश्नव्याकरण की विषयवस्तु का जो उल्लेख है वह समवायांग के विवरण का मात्र संक्षिप्त रूप है । उसके भाव और भाषा दोनों ही समान है । मात्र विशेषता यह है कि इसमें प्रश्नव्याकरण के ४५ अध्ययन बताये गये हैं, जबकि समवायांग में केवल ४५ समुद्देशनकालों का उल्लेख है, ४५ अध्ययन का उल्लेख समवायांग में नहीं है।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org