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तेरापंथ का उदयकाल
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'तेरापंथ' की अधिकृत व्याख्या इससे सुन्दर बन नहीं सकती थी और तब से तेरापंथ का नामकरण वैधानिक रूप से हो गया ।
स्थापना
अभिनिष्क्रमण के बाद मारवाड़ के कतिपय क्षेत्रों में विहार करते हुए स्वामीजी मेवाड़ पधारे पर वहां भी स्थान-स्थान पर उन्हें कड़ा विरोध सहना पड़ा। विहार करते-करते संवत् १८१६ (विक्रम संवत् १८१७ ) के आसाढ़ सुदि १३ को स्वामी जी चार साधुओं सहित केलवा पधारे व वहाँ के लोगों से स्थान की याचना की पर कोई गृहस्थ उन्हें अपना मकान देने को तैयार नहीं हुआ पर उन्होंने एक युक्ति ढूंढ ली । केलवा में कुछ ऊँचाई पर प्राचीनकाल का बना हुआ भगवान श्री चन्द्रप्रभु का जैन मन्दिर है, उसके बारे में प्रख्यात था कि उस मन्दिर में यक्ष रहता है और वहां कोई ठहरने का साहस नहीं कर सकता और यदि ठहर जाए तो जीवित नहीं रह सकता । लोगों ने सोचा कि यदि सचमुच भिक्षु स्वामी, जैसा लोग कहते हैं, भगवान् के मार्ग के उत्थापक व निंदक हैं, तो वहाँ ठहरने से स्वतः समाप्त हो
एंगे और इस तरह उनकी हत्या का पाप भी नहीं लगेगा, व अनिष्ट समाप्त हो जाएगा और यदि भिक्षु स्वामी शुद्ध साधु हैं तो इनका देवता भी बाल बाँका न कर सकेगा, व स्वतः उनके बारे में उनके जीवित रहने पर निर्णय हो जाएगा । स्वामीजी की सबसे कड़ी परीक्षा किसी ने ली, तो वह तत्कालीन केलवा व -वासियों ने ली । किसी ने अन्न, जल, वस्त्र, उपकरण, स्थान नहीं दिया पर वहां के लोगों ने तो उनके जीवन को दाँव पर लगा देना चाहा । साम्प्रदायिक उन्माद व आवेग जो न कराएं, वह थोड़ा है। लोगों ने स्वामीजी को ठहरने के लिए उस मन्दिर में 'अंधेरी ओरी' (जहाँ प्रकाश का लवलेश ही नहीं था ) का स्थान बता दिया । भिक्षु स्वामी को मंदिर के बारे में व लोगों की नियत के बारे में भनक मिल चुकी थी, पर भला वे कब घबराने वाले थे ! 'डर' का नाम तो उन्होंने कभी न जाना, न देखा । वे उस मन्दिर में अपने सहयोगी साधुओं सहित निःसंकोच ठहर गए, रात्रि में जो उपसर्ग की आशंका थी, वही हुआ ।
स्वामीजी के साथ तेरह - चौदह वर्ष के समर्पित बाल साधु भारमलजी रात्रि निवृत्ति हेतु बाहर गए, कि एक सर्प आकर उनके पैरों में लिपट गया । सर्प ने न काटा, न फुफकार किया, न कष्ट दिया और भारमलजी भी अविचल भाव से स्थिर खड़े रहे । धन्य है ऐसे बाल साधु की वीरता, जो सर्प के लिपटे रहने पर भी भयातुर नहीं हुआ। वापस आने में विलम्ब देखकर, स्वामीजी बाहर आए और वस्तुस्थिति जानकर सर्प को सम्बोधित करके बोले, 'देवानुप्रिय ! हम साधु हैं, किसी को कष्ट नहीं देते। तुम्हें कष्ट होता हो तो हम अन्यत्र चले जाएं, पर इस
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