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२० हे प्रभो ! तेरापंथ -संवत १८५३ में स्वामीजी के दर्शन कर २१ दिन सेवा की व प्रश्नोत्तर कर उनकी मान्यताओं को हृदयंगम किया व श्रद्धा स्वीकार की।
स्वामीजी के साथ तेरापंथ की स्थापना के समय ७ साधु (थिरपालजी, फतेह चन्दजी, वीरभाणजी, टोकरजी, हरनाथजी, भारमलजी, लिखमीचन्दजी) दीक्षित हुए, बाद में स्वामीजी ने ४१ साधुओं को और दीक्षित किया पर उनमें से २० साधु गण छोड़कर चले गये व २८ यावत् जीवन धर्मसंघ में रहे । इसी तरह स्वामीजी ने ५६ साध्वियों को प्रवजित किया, जिनमें १७ ने संघ छोड़ दिया व ३६ जीवन-पर्यन्त धर्मसंघ में रहीं। साहित्यदृष्टा एवं उपदेष्टा
तेरापंथ की विधिवत् स्थापना व परकल्याण भावना पर पुनर्विचार करने के बाद संवत् १८३२ से जीवन-पर्यन्त स्वामीजी ने लगभग ३८००० पद्यों की विपुल साहित्य रचना की व जीवन भर गद्य व पद्य में साहित्य-सृजन करते ही रहे । स्वामीजी की प्रारंभिक रचनाओं में आचार, अनुकम्पा; दया-दान, व्रत-अव्रत, नव तत्त्व निर्णय, शील की नवबाड़ व विभिन्न खंडकाव्य व प्रबन्धकाव्य हैं। वे सभी शुद्ध, सरल एवं लालित्यपूर्ण राजस्थानी भाषा में हैं और भाषा इतनी हृदयग्राही है कि पढ़ते-पढ़ते कोई भी भावितात्मा भाव-विभोर हुए बिना नहीं रह सकता। कुल काव्य रचनाएँ लगभग ४३ हैं व गद्य रचनाएं १८ हैं जो मुख्यतः तत्त्व ज्ञान साध्वाचार से सम्बन्धित हैं । अंतिम गद्य रचना संवत् १८५६ के माघ शुक्ला सप्तमी का मर्यादा-पत्र है जो तेरापंथ का सर्वमान्य व अधिकृत विधान है। यह सचमुच आश्चर्य का विषय है कि कुल १४ धाराओं के विधान से आज तक, लगभग दो शताब्दियों से, संख्या व काल की भिन्नता के उपरान्त भी, धर्मसंघ का संचालन हो रहा है और उस विधान में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है । उस विधान (मर्यादा-पत्र) के निर्माण के उपलक्ष में संवत् १९२१ से प्रति वर्ष माघ शुक्ला सप्तमी को मर्यादा-महोत्सव मनाया जाता है, और जब सैकड़ों साधु-साध्वी एवं सहस्रों श्रावक-श्राविकाओं के समक्ष आचार्यप्रवर उस विधान का वाचन करते हैं तो उस मर्यादा-पुरुष आचार्य भिक्षु की दूरदर्शिता, प्रज्ञा एवं आत्मबल के प्रति सहज ही नत-मस्तक होना पड़ता है। ___ आचार्य भिक्षु ने अपने जीवनकाल में अनेक व्यक्तियों से चर्चा-वार्ता की, मान-अपमान की परवाह किए बिना, अनेक बार विरोध के विष को अमृत मानकर पिया व सदा समता भाव बनाए रखा । स्वामीजी के जीवन-प्रसंगों व चर्चा
१. स्वामीजी आदि तेरह साधु थे, चातुर्मास के बाद श्रद्धा-आचार न मिलने के
कारण पांच साधु दीक्षित नहीं हुए।
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