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तेरापंथ का उदयकाल ३३
के सामने रखा व जमता को सही समझ देने के लिए सतत प्रयास किया। उन्होंने किसी प्रवृत्ति में धर्म है या नहीं, उसके लिए निम्न सूत्र दिए, जो इतने सुस्पष्ट हैं कि उनकी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है -
(१) धर्म त्याग में है, भोग में नहीं, (२) व्रत में है, अव्रत में नहीं, (३) दया में है, हिंसा में नहीं, (४) हृदय परिवर्तन में है, बल-प्रयोग में नहीं, (५) समता में है, ममता में नहीं, (६) अमूल्य है, धन से खरीदा नहीं जा सकता, (७) राग-द्वेष की कमी में है, वृद्धि में नहीं, (८) आत्मिक सुख में है, दैहिक सुख में नहीं। दुनिया में स्वार्थ या मोह या यश-कीर्ति हेतु हम किमी प्रवृत्ति को धर्म कह दें पर जब तक उपरोक्त कसौटी पर किसी प्रवृत्ति को नहीं कसा जाता, तब तक उसे आत्मशुद्धिपरक धर्म नहीं कहा जा सकता। -साधुत्व की सही परीक्षा
भगवान महावीर द्वारा प्रणीत साधुचर्या के पाँच महाव्रतों की साधना के विषय में स्वामीजी ने स्पष्ट किया कि जैन साधु मनयोग, वचनयोग, काययोगतीनों प्रकार से किसी प्रकार की हिंसा नहीं करते, न कराते, न उसका अनुमोदन करते हैं। इसी प्रकार वे न झूठ बोलते हैं, न चोरी करते हैं, न अब्रह्मचर्य-सेवन करते हैं, न किसी भी प्रकार के मूर्छा परिग्रह रखते हैं, न अन्य किसी से करवाते हैं, न उसका अनुमोदन ही करते हैं-मन से, वचन से या शरीर से । स्वामीजी ने यह भी घोषणा की कि जो कार्य साधु के लिए करना पाप है, निषेधपूर्ण है, उसका कराना या अनुमोदन भी पाप है, निषेधपूर्ण है । इस सिद्धान्त को देखते, जब कोई जैन साध द्रव्य पूजा नहीं करता, न कोई जैन साधु असंयमी व्यक्तियों को किसी वस्तु का दान करता है, न असंयती प्राणी के जीवन की आकांक्षा रख -सकता है, फिर भला वह इनको करने के लिए किसी को प्रेरित कैसे कर सकता
है, या अनुमोदन कैसे कर सकता है ? गृहस्थों को अपनी आवश्यकतावश कुछ ऐसे -कार्य करने पड़ते हैं जिन्हें वह पाप जानता है पर आवश्यक कार्य होने से धर्म की कोटि में नहीं लिया जा सकता। अहिंसा को सही समझ (दान-दया का स्वरूप)
- स्वामीजी ने जैन आगमों के आधार पर यह मान्यता दी कि सारे प्राणी जगत की आत्मचेतना समान हैं और सभी प्रकार के प्राणियों की हिंसा, वध, यातना पाप की कोटि में आते हैं। इसमें ऐसा नहीं हो सकता कि एकेन्द्रिय जीवों
की हिंसा कर पंचेन्द्रिय का पोषण किया जाए या दुर्बल, असहाय, मूक, निरीह -प्राणियों का वध या त्रास मनुष्य के ऐहिक लाभ या सुख-सुविधा के लिए किया जाए। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि जहाँ ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय धर्म
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