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नवयुग का उदय व विकास ११५
बंधेगा, यह राजाओं का राजा होगा।' आपके बारे में सारी भविष्यवाणियां सही निकलीं । जन्म राशि के अनुसार आपका नाम 'शोभाचन्द' रखा गया पर परिवार में 'काला भैरू' का इष्ट होने तथा आपका वर्ण श्याम होने से आपका 'काल' नाम ही प्रचलित हुआ, कालांतर में यही नाम लाखों लोगों की आस्था का प्रतीक बन गया। आपका वर्ण श्याम, छरहरा बदन, सुडौल आकृति तथा शरीर सर्वाग सुन्दर था। अपनी माता का स्वस्थ शरीर, स्वस्थ मन, श्रमशील जीवन आप में सुसंस्कार भरने के लिए वरदान बन गया। मात्र तीन माह की आयु में आपके पिता का देहावसान हो गया और छोगांजी की सारी आशा, आकांक्षाएं आप पर केन्द्रित हो गई। छोगोंजी के पिता नरसींगदासजी लूणिया संवत् १९४० में कारोबार छोड़कर श्री डूंगरमढ़ में आकर बस गए, वे बहुधा अपने पीहर रहने लग गई, जहां उन्हें साधु-साध्वियों की सेवा का सुयोग सहज हो गया। पांच वर्ष की अवस्था में बालक काल की आंखें दुखनी आ गईं, १५ दिन तक कष्ट रहा तभी अचानक एक योगी घर पर आया। उसने कहा, 'माताजी फरोंस की लकड़ी घिसकर बच्चे की आंख में आज दो, आंखें ठीक हो जाएंगी।' माता ने ऐसा ही किया तो आंखें ठीक हो गईं। उन दिनों अध्यापक बच्चों की पिटाई बहुत करते थे, इस डर मे छोगोजी ने आपको पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेजा। आपने मामा के पास ही स्वल्प अध्ययन किया । खेल कूद में चोट न लग जाए, इस आशंका से माता आपको खेलकूद में जाने नहीं देती, मां की प्रगाढ ममता में ही आपका बचपन बीता ।
दीक्षा व शिक्षा योग
संवत् १६४१ में साध्वी मृगांजी ने डूंगरगढ़ चातुर्मास किया व उनके सत्संग से छोगांजी में वैराग्य भावना जागृत हुई। कालूजी अभी छोटे थे, माताजी का मन था कि दोनों साथ ही दीक्षित हों ताकि उसके पुत्र को उससे दूर रहकर व्यापारार्थ प्रदेश न जाना पड़े, उसे विरह वेदना सहनी न पड़े। माता ने मन की बात बालक से की तो उसने सहज भावना से जीवन भर साथ रहने तथा एक-दूसरे से विछोह न होने का उपाय पूछा । माता ने कहा, 'यदि हम दोनों दीक्षित हो जाएं तो श्रीमद् मघवा गणि की सेवा में एक गांव में रह सकते हैं। दूसरे गांव भी रहना पड़े तो कष्ट नहीं होगा और मिलते रहेंगे।' बालक काल के हृदय में यह बात बैठ गई। शिशुवय में ही आपने साध्वी मृगांजी से पच्चीस बोल प्रतिक्रमण, आदि तत्त्वज्ञान सीखकर कंठस्थ कर लिया। संवत् १९४१ में मां-पुत्र दोनों सरदारशहर श्रीमद् मघवागणि के दर्शन करने गये, साथ में आपकी मौसी की पुत्री कानकुंवरजी भी थी, वह भी दीक्षित होना चाहती थी। मघवागणि के दर्शन कर तीनों ने दीक्षित होने की भावना रखी । मघवागणि इसके बाद डूंगरगढ़ या छापर साधु-साध्वियों को भेजकर तीनों की भावनाओं को बराबर बलशाली बनाने का प्रयास करते रहे।
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