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१२२ हे प्रभो ! तेरापंथ श्वेतांबर बंधुओं ने कालूगणि के विरोध में अवांछनीय पर्चे छपवाकर बांटे । तेरापंथ की विचारधारा से वहां बहुत कम लोग परिचित थे । अतः पर्यों ने जिज्ञासा व उत्सुकता पैदा कर दी । आचार्यवर के पधारने से हजारों लोग प्रवचन सुनने पहुंचे, आपने संघ के विरुद्ध फैलाई गई उन तमाम भ्रांतियों का स्पष्ट निराकरण किया जिससे विद्वेषीजनों द्वारा फैलाया गया जहर साफ हो गया। वहां से विहार कर
आप रतलाम पहुंचे तो वहां भी विद्वेषीजनों ने उसी तरह की प्रचार सामग्री वितरित की पर आपकी ओर से उसके पक्ष या विपक्ष में कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की गई। तीन दिन बाद कुछ बुद्धिजीवी आपके सम्पर्क में आए व उनके अगुवा एक डॉक्टर ने निवेदन किया-'महाराज, हम दो दिन से आपके विरुद्ध विरोधी भाषण और पर्चे सुन, पढ़ व देख रहे हैं, आपकी प्रतिक्रिया की हमने प्रतीक्षा की पर कोई उत्तर न पाने के कारण हमको लगा कि आप जहर को पचाने वाले आशुतोष हैं, और इसी कारण हम आपके प्रति श्रद्धा व्यक्त करने आए हैं।' तेरापंथ का प्रचार वस्तुतः विद्वेषीजनों के उग्र विरोध और उस पर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया न करने के कारण ही स्थायी एवं प्रभावी बना है। संवत् १९७२ में आपके उदयपुर चातुर्मास में अनेक विरोधी पर्चे बंटे पर कोई उत्तर नहीं दिया गया। महाराणाजी ने हीरालालजी भुरड़िया से इन पर्यों को उत्तर न देने का कारण पूछा तो उन्होंने कहा कि हमारे संघ में विरोध का उत्तर सजनात्मक कार्य से ही दिया जाता है । विरोध या पर्चेबाजी से नहीं । महाराणाजी का उत्तर सुनकर सुखद आश्चर्य हुआ । कुछ दिनों बाद एक पर्चा प्रकाशित हुआ, जिसमें लिखा था, 'पंचायती नोहरे की भट्ठी में एक गाय जलकर मर गई, तेरापंथ के पूज्य कालूगणिजी वहां चातुर्मास कर रहे हैं । तेरापंथी श्रावक उस समय मौजूद थे, पर किसी ने गाय को नहीं बचाया। यह पर्चा आग फैलाने वाला था। अतः महाराणाजी ने भुरडियाजी को बुलाकर स्पष्टीकरण देने को कहा ताकि जनता में झठी भ्रांति न फैले और वातावरण विषाक्त न बने । भुरड़ियाजी ने इस सुझाव को आचार्यवर के समक्ष रखा तथा मंत्री मुनि को बताया, दोनों की सहमति से स्पष्टीकरण प्रकाशित किया गया कि 'चातुर्मास में पंचायती नोहरे में कोई जीमनवार नहीं होता, कोई भट्ठी नहीं जलती अतः गाय जलने की और न बचाने की बात सर्वथा मिथ्या है, वह द्वेष फैलाने के कारण गढी गई है।' इस स्पष्टीकरण से भ्रम निरस्त हो गया और तनाव नहीं बढ़ा । संवत १९७३ और १६६१ में जोधपुर चातुर्मास के समय वर्षा विलंब से होने के कारण यह बात प्रचारित की गयी कि आचार्यवर तथा उनके साथियों ने वर्षा बंद कर दी है। इससे अजैन लोगों में बड़ा भ्रम फैला पर संयोग से बाद में इतनी वर्षा हुई कि जनता तृप्त हो गई और भ्रम का कुहासा स्वतः समाप्त हो गया।
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