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१२० हे प्रभो ! तेरापंथ शब्दानुशासन बनाने की कल्पना जागी। मुनिश्री चौथमलजी की सतत कार्यशीलता
और पंडित रघुनन्दनजी के सहयोग से 'श्री भिक्षु शब्दानुशासन' ग्रंथ का निर्माण हआ, जो परिभाषा की जटिलता से मुक्त व कोमल सूत्र युक्त है । इसके प्रथम अध्येता आचार्यश्री तुलसी, श्री धनमुनि और श्री चंदनमुनि हुए । बाद में मुनि श्री चौथमलजी ने प्रक्रिया ग्रंथ के रूप में 'कालूकौमुदी' की रचना की जिसके प्रथम अध्येता युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ, मुनिश्री बुद्धमलजी आदि हुए । इस प्रकार देखतेदेखते महाव्याकरण सर्वांग रूप से परिपूर्ण हो गया । अब तो संस्कृत विद्वानों से भी खुलकर चर्चा होने लगी। संवत् १६७० में रतनगढ़ में पंडित हरिनन्दनजी ने वार्ता में गर्वोक्ति के साथ कहा कि भट्टजी रचित 'सिद्धांत कौमुदी' की सानी का कोई ग्रंथ नहीं है तो आपने उक्त कोमुदी के द्वारा 'तुच्छ शब्द की सिद्धि करने को कहा । पंडितजी ने घंटों प्रयास किया पर वे शब्द सिद्धि नहीं कर सके तब आचार्यवर ने कहा कि इस जगत् में सभी कुछ अपूर्ण है, अत: पूर्णता का गर्व किसी को नहीं करना चाहिए। संवत् १६७६ में भीनासर के कनीरामजी बांठिया आदि सूत्रकृताग आगम की टीका का अर्थ करने के लिए बीकानेर के पंडित गणेशदत्तजी को साथ लेकर आये पर उन्होंने टीका का पाठ पढ़कर वही अर्थ किया, जो आचार्यवर न किया था, तो कनीरामजी निरुत्तर हो गए। आपका निश्चित मत था कि जो अपनी पूर्व धारणा की पुष्टि के लिए ही तत्त्वचर्चा करना चाहे, उससे चर्चा करना कभी सार्थक नहीं होता ।
उफान व तूफानों के बीच
श्रीमद् कालगणि सौम्य प्रकृति के धनी थे। उनका ध्यान सदा सजनात्मक प्रवृत्तियों में रहता था। आचार्यवर के नेतृत्व में तेरापंथ के प्रगति एवं विकास की धाराओं को फूटते देखकर कुछ लोग स्पर्धावश उनका विरोध करने पर तुल गये । उस समय तक चूरू जिले में तेरापंथ का पर्याप्त प्रचार हो चुका था पर बीकानेर क्षेत्र में विशेष आवागमन साधु-साध्वी या आचार्यों का तब तक नहीं हो पाया था । संवत् १९४४ में श्रीमद् मघवागणि ने बीकानेर मर्यादा महोत्सव किया। उसके बाद संवत् १९७६ में आप ही आचार्य के रूप में यहां पधारे। सारे तेरापंथ समाज को इससे आनन्दानुभूति हुई पर दूसरे समाजों में आश्चर्य, सन्देह, स्पर्द्धा और विद्वेष के भाव जाग उठे । संवत् १६७६ का चातुर्मास आपने बीकानेर में किया। दूसरे विद्वेषी लोगों ने आपके विरुद्ध गालियों की बौछार की। भद्दी और अश्लील पुस्तकें प्रकाशित की, पर यह सब एक पक्षीय था, आपने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की और वहां के समाज तथा साधुओं को मौन और शान्त रहने का आदेश दिया। विरोधी लोग इससे और बौखला उठे। मुनि मगनलालजी के शौच स्थान (जंगल) से वापस आते वक्त पीठ पर जानबूझकर चाबुक मारा गया। मुनिः
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