Book Title: He Prabho Terapanth
Author(s): Sohanraj Kothari
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 138
________________ नवयुग का उदय व विकास १२५ वास्तविकता समझ नहीं पा रहे हैं, दोनों पक्ष हमारे श्रावक हैं। अतः हम सबके प्रति समान व्यवहार रखें, किसी का पक्ष न लें तथा किसी से सामाजिक विवाद के बारे में कोई बात नहीं करें, न सुनें ।' आचार्यवर की इस शिक्षा का परिणाम अत्यधिक सुन्दर रहा, समाज की धार्मिक एकरूपता पूर्ववत् बनी रही। कुछ लोगों ने इस विवाद से लाभ उठाने हेतु धर्मसंघ में विघटन करने की योजना बनाई। स्थानकवासी आचार्यश्री जवाहरलालजी को थली में बुलाया । वे संवत् १९८४ में थली आए। स्थान-स्थान पर शास्त्रार्थ होने लगे। इन चर्चाओं में मुनिश्री हेमराजजी, भीमराजजी, घासीरामजी, सोहनलालजी, चंपालालजी, कानमलजी, नथमलजी, रंगलालजी, ऋषिरायजी ने बड़ी तत्परता से भाग लेकर आचार्यश्री जवाहरलालजी की आपत्तियों का सफलतापूर्वक निरसन किया। सरदारशहर में नेमनाथजी सिद्ध, जैन दर्शन, न्याय तथा तेरापंथ के सिद्धान्तों के कुशल ज्ञाता और प्रवक्ता थे। उनकी तर्क-शक्ति प्रखर थी। उन्होंने अनेक शास्त्रार्थों में तेरापंथ के सिद्धान्तों का सफलता से प्रतिपादन किया। आचार्यवर को अपनी साधना और संघ की निष्ठा पर पूरा विश्वास था, वे कहते 'चिंता क्या है ? जिसकी पतली है, उसकी "फूटेगी। हमारा तो आधार बहुत मजबूत है, उसे कौन हिला सकता है ?" वस्तुतः यह विवाद तूफान बना, आचार्य जवाहरलालजी के आने से बवण्डर हो गया, पर उसकी भयंकरता स्वतः समाप्त हो गई, तेरापंथ का तिनका भी न हिला । ___मुनि ऋषिरामजी उस समय प्रभावशाली अग्रणी थे। उन्होंने लाडनूं व्याख्यान में तेरापंथ की परम्परा के विरुद्ध कुछ बातें कह दी जिस पर आचार्यवर ने उन्हें परिषद् के सम्मुख उलाहना और प्रायश्चित्त दिया। संवत् १९८६ में उनके पिता मुनि लछीरामजी के प्रमादाचरण करने व प्रायश्चित्त न लेने के कारण उन्हें गण से अलग कर दिया गया। ऋषिरामजी को आवेश आ गया और वे अंटसंट बकने लगे। तब आचार्यवर ने उनको गंभीर चेतावनी दी, इस पर वे शान्त हो गए। संवत् १६६० के पचपदरा चातुर्मास में ऋषिरामजी ने कलुषित भावना से संघ और संघपति के प्रति दुष्प्रचार प्रारम्भ कर दिया। समदड़ी के वृद्धिचंदजी जीरावला की जांच करके सूचना पर आचार्यवर ने वहां के श्रावकों से उन्हें गण से बहिष्कृत करा दिया। संवत् १९६० के मर्यादा महोत्सव के अवसर पर मुनि दयारामजी, फतेचंदजी, चिरंजीलालजी : हरियाणा के अग्रवाल जाति के नाम पर दलबंदी की और नया पंथ चलाने की योजना बनाई जिसकी जानकारी आचार्यवर को दीक्षार्थी जालीराम से मिली। आचार्यवर ने उन तीनों को बुलाकर भरी परिषद् में संघ से बहिष्कृत कर दिया। संवत् १९८६ में सरदारशहर में आचार्यवर व स्थानकवासी मुनि केशरीचंदजी का चातुर्मास था। एक बार श्री केशरीचंदजी आचार्यवर को शौचार्थ जाते मार्ग में मिले और चर्चा वार्ता करनी चाही। आचार्यवर ने उपयुक्त स्थान व समय न देखकर वार्ता करने से मना कर दिया तो उन्होंने कहा, 'आप आगे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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