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१७२ हे प्रभो ! तेरापंथ
में वीतराग प्रभो द्वारा प्रणीत मार्ग से बहुत दूर है। सांसारिक कार्यों के भंवरजाल में वह प्रमादवश स्वयं फंसता जा रहा है। ऐसा लगता है कि वीतरागता के मार्ग से अन्यत्र कहीं भटक गया है। ऐसे में यह आवश्यक हो गया है कि वह आचार्य भिक्षु द्वारा प्रतिपादित तथा प्रतिष्ठापित मान्यताओं का पुनरावलोकन करे, अपने संन्यासी जीवन की शीलचर्या की संपूर्ण सुरक्षा करे । आत्म-साधना के पथ पर निश्चल भाव से आगे बढ़ता हुआ मोक्ष-प्राप्ति या कर्मबंधन-मुक्ति का गंतव्य प्राप्त करे। आचार्यश्री भिक्षु की आज्ञा में चलने का संकल्प लेने वाले साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका, समाज का तो यह विशेष दायित्व है कि उनके द्वारा निर्धारित धर्म और अधर्म की भेद-रेखाओं को कभी विस्मरण नहीं करे। सजगता से वीतराग प्रणीत धर्म की आराधना करता हुआ अपना और जन-जन का कल्याण करे, इसी में आचार्यश्री भिक्षु की मान्यताओं तथा मर्यादाओं की प्रासंगिकता और सार्थकता है, जो सदा सर्वदा रहेगी । जब-जब क्रान्ति की लो क्षीण पड़ेगी, तब-तब उनका स्मरण क्रांति की लौ को नयी आभा, प्रकाश और तेजस्विता देता रहेगा। आचार्य भिक्षु के सशक्त शाश्वत स्वर की गूंज संमूच्छित मानवता को जगाती रहेगी।
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